Saturday, December 13, 2008

कौन याद करे कुर्बानी

इनकी जान बचाने के लिए वे शहीद हो गए और उनकी इस कुर्बानी को याद करने के लिए ये चंद मिनट भी नहीं निकाल सके। ये वहीं शहीद हैं जो सात साल पहले संसद पर हुए हमले में शहीद हो गए थे। मगर कई सांसद ही नहीं,बल्कि कई केंद्रीय मंत्रियों ने भी इन शहीदों को श्रद्धांजलि देना जरूरी नहीं समझा।

जबकि अभी कुछ दिन पहले ही संसद ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की प्रतिबद्धता जताई थी। तब आश्चर्य हो रहा था कि जो इतने स्वार्थी होते हैं, वो आतंकवाद के खिलाफ कैसे लड़ेंगे? मगर अब यकीन हो गया कि जो सांसद चंद मिनट इन शहीदों को याद करने के लिए नहीं निकाल सकते, वे क्या खाक आतंकवाद के खिलाफ लड़ेंगे।

आज सांसदों के पास इन शहीदों की कुर्बानी याद करने के लिए समय नहीं है तो कल जवान भी तो यह सोच सकते हैं कि कौन इन स्वार्थियों को बचाने के लिए शहीद हो?

Thursday, December 11, 2008

फिर संयम क्यों?

चाहे वह प्रधानमंत्री हों या गृहमंत्री भले ही आए दिन कहते हों कि आतंकवाद से निपटने के लिए कड़ा कानून बनेगा। ये किया जाएगा, वो किया जाएगा। मगर किया कुछ नहीं जाता है। और उम्मीद भी नहीं है कि कुछ कर भी पाएंगे ये। जब तक नेतागण आतंकवाद से निपटने की रणनीति बनाते हैं, उससे पहले ही आतंकी कोई बड़ी वारदात को अंजाम दे देते हैं। इसके बाद फिर आतंकवाद से निपटने का राग अलापा जाने लगता है। और कुछ समय के बाद फिर चुप्पी साध ली जाती है। पड़ोसी मुल्क भी इससे वाकिफ है।

अब भले ही प्रधानमंत्री यह कह रहे हों कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी जाएगी। पाकिस्तान में आतंकी अड्डों को नष्ट किया जाएगा। और गृहमंत्री यह कह रहे हैं कि आतंकवाद के खिलाफ कड़ा कानून बनेगा। मगर सिर्फ बयानबाजी से क्या आतंकवाद का खात्मा हो जाएगा? पड़ोसी मुल्क पर सिर्फ निशाना साधने से काम नहीं चलेगा। जरूरत है उससे सख्ती से निपटने की। जब पड़ोसी मुल्क अपनी ओछी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है तो आप सब क्यों बरत रहे हैं संयम?

Sunday, November 30, 2008

ये तो होना ही था

मंुबई में आतंकी हमलों के बाद अगर केंद्र सरकार जबर्दस्त दबाव में आई न आती तो क्या गृहमंत्री शिवराज पाटिल पद छोड़ते? जब-जब विस्फोट हुए, तब-तब उन्हें हटाने की मांग की गई। मगर केंद्रीय नेतृत्व ने हर बार क्यों अनसुनी? जब पाटिल बहुत पहले ही अक्षम साबित हो चुके थे, तो उन्हें अब तक क्यों ढोया जाता रहा?

चौतरफा विरोध के बावजूद उन्हें हटाने की जरूरत क्यों नहीं समझी गई? और अब क्या सिर्फ पाटिल के स्थान पर पी. चिदंबरम को गृहमंत्री की कुर्सी पर बिठा देने से समस्या का समाधान हो जाएगा? आंतरिक सुरक्षा क्यों नहीं अभेद की जाती? कब जाएगी सरकार?ये तो होना ही था

Wednesday, November 26, 2008

क्या हुआ तेरा वादा?

चुनावी मौसम में वैसे तो नेता जी आते हैं, वादे करते हैं और चले जाते हैं। भले ही वो वादे पूरे हो या ना हों पर कोई इनसे यह नहीं पूछता है कि पिछली बार इन्होंने जो वादे किए थे, उनमें से कितने पूरे हुए। और अगर कोई पूछने की हिम्मत करता है तो उसे पुलिस हिरासत में ले लेती है। क्या ये उचित है?

जम्मू के सतवारी ब्लाक के पनोत्रेचक गांव में नेता जी ने वादों की झड़ी लगाई ही थी कि ये करूंगा, वो करूंगा। इतने में एक वोटर से नहीं रहा गया। और वह बोल पड़ा आपने पिछली बार भी कुछ ऐसे ही वादे किए थे, उनका क्या हुआ?

भरी सभा में उसने नेताजी से जवाब मांगने की हिम्मत की, और बाकी सब मूक दर्शक बने रहें। शायद इसीलिए उसकी आवाज दबा दी गई। जब तक सच के खिलाफ लोग एकजुट नहीं होंगे, तब तक ऐसे ही आवाज दबा दी जाती रहेगी। अगर दूसरे लोग भी आवाज बुलंद करते तो उनका क्या बिगड़ जाता?

Sunday, November 23, 2008

शिबू भी राज की राह पर !

झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन भी लग रहा है कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे की राह पर चलने की तैयारी कर रहे हैं !
तभी तो विधानसभा के अष्टम स्थापना दिवस पर वह कहते हैं कि बिहारी यहां रह रहे हैं और रहेंगे, पर हमें आदिवासियों मूलवासियों का भी ख्याल रखना होगा।
रांची में अस्सी फीसदी आदिवासी भूमि पर कब्जा हो चुका है। जमीन के असली मालिक रिक्शा चला रहे हैं। जमीन पर इमारतें खड़ी कर ली गई हैं। ऐसा कैसे चलेगा? तब तो झारखंड में महाराष्ट्र का हाल होगा।
तो कभी यह कह रहे हैं कि झारखंड में रहने वालों को यहां के हित के बारे में सोचना होगा। यह तो हो सकता है पर उनका यह कहना कि झारखंड में जन्मा हर बच्चा झारखंडी है। क्या ये मुनासिब है?
शिबू यह क्यों नहीं बताते हैं कि बरसों-बरस से गुरबत की जिंदगी जी रहे आदिवासियों की स्थिति के लिए कौन दोषी है? आदिवासी भूमि पर कब्जा हुआ तो तत्काल क्यों नहीं कार्रवाई हुई? क्यों अट्टालिकाएं बनने का इंतजार होता रहा?
आज शिबू ऐसा कह रहे हैं, कल किसी दूसरे प्रदेश का मुख्यमंत्री कहेगा..फिर कोई और कहेगा.. क्या यह उचित है?
शिबू ही नहीं, अभी कुछ दिन पहले पंजाब में भी एक सियासी दल ने बाहरी मजदूरों को वहां से भगाने की मुहिम शुरू करने का ऐलान किया था, पर उसके मंसूबे पूरे नहीं हो पाए थे।
हरियाणा में कुछ लोगों ने मराठियों को प्रदेश छोड़ने की चेतावनी दी थी। पर प्रशासन की सख्ती के चलते उनकी एक न चली थी। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?
जब भारतीय संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि कोई भी व्यक्ति कहींभी रह सकता है, काम कर सकता है तो फिर कुछ ओछी मानसिकता के लोगों ये क्यों नहीं भा रहा है। आखिर वे क्या चाहते हैं?
अगर केंद्र सरकार राज से सख्ती से निपटती तो शायद आज ये नौबत न आती। अब केंद्र की लापरवाही का खामियाजा अगर भोली-भाली जनता भुगतना पड़े तो क्या उचित है?

Saturday, November 22, 2008

...पर हकीकत क्या है?

आतंकी आते हैं और कहर बरपा कर चले जाते हैं। चाहे वह राष्ट्रीय राजधानी हो या कहीं और, हर जगह वह अपने खौफनाक इरादों को अंजाम देते हैं। फिर भी इनसे कड़ाई से निपटने के बजाए हमारे नेता एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं। इससे भले ही जनता को बरगलाकर वोट हासिल किए जा सकें, पर आतंकी घटनाओं पर कैसे काबू पाएंगे जनाब?

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का कहना है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के कार्यकाल में आतंकी घटनाओं में इजाफा हुआ। वहीं, केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल का कहना है कि संप्रग सरकार के साढ़े चार वर्ष के कार्यकाल के दौरान पहले की अपेक्षा कम आतंकी हमले हुए। पर हकीकत क्या है?

पाटिल कहते हैं कि, अगर कोई आतंकी घटना होती है और उसमें एक भी व्यक्ति हताहत होता है तो हमे उसे गंभीरता से लेना चाहिए और सजग हो जाना चाहिए।' पर जब आतंकी दिल्ली दहला रहे थे, उस वक्त ये जनाब कितने गंभीर और सजग थे। उधर लोग दर्द से तड़प रहे थे, इधर ये कपड़े बदल रहे थे। क्या यहीं इनकी गंभीरता है, और यहीं सजगता?

भाजपा का कहना है कि देश में आतंकवाद से निपटने के लिए कोई कानून नहीं है, जबकि पाटिल का कहना है कि आतंकवाद के खिलाफ कानून बनाए हैं, जिनसे आतंकवाद को रोकने में मदद मिलेगी। फिर आतंकी घटनाएं रुक क्यों नहीं रही हैं?

Friday, November 21, 2008

वादे हैं, वादों का क्या...

चुनावी मौसम में यूं तो सभी राजनीतिक दल चुनाव घोषणापत्र जारी करते हैं, और इसमें ऐसे-ऐसे वादे करते हैं जो शायद ही कभी पूरे हों। कहते हैं, हमारी सरकार आई तो ये कर देंगे..वो कर देंगे..लेकिन ये क्या कर देंगे..यह सभी जानते हैं।

क्योंकि ये सियासी दल जानते हैं कि बिना घोषणाओं के तो कुछ होगा नहीं। इसलिए घोषणाएं करने में क्या जाता है। कोई भी सियासी दल सत्ता में आने के बाद इन चुनाव घोषणापत्रों को पढ़ने की जहमत नहीं उठाता है। न ही जनता उनसे पूछने की हिम्मत जुटा पाती है कि चुनाव घोषणापत्र में तुमने जो वादे किए थे, उनका क्या हुआ।

जब तक कोई सियासी दल सत्तासीन रहता है, तब वो यह नहीं कहता कि हम ये कर देंगे..वो कर देंगे..पर जैसे ही वह सत्ताच्युत होता है तो कहने लगता है कि मेरी सरकार बनी तो ये करूंगा..वो करूंगा..

Wednesday, November 19, 2008

राजनीति की खातिर

महाराष्ट्र में नब्बे फीसदी जॉब स्थानीय लोगों (मराठियों) के पास हैं। यह कोई और नहीं,बल्कि महाराष्ट्र सरकार के आंकड़े बताते हैं।

फिर भी यह कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र में बाहरी लोग स्थानीय लोगों (मराठियों) से जॉब छीन रहे हैं। और इस पर पिछले कुछ समय से राजनीति खूब गरमाई।

कइयों की जान गई, कई जख्मी हुए तो कुछ महाराष्ट्र छोड़ने पर मजबूर किए गए। आखिर क्यों? क्या ये सब राजनीति चमकाने के लिए नहीं किया गया?

Tuesday, November 11, 2008

असली भिखारी या नकली भिखारी

चुनावी बिगुल बजते ही नेताओं ने वादों की झड़ी लगानी शुरू कर दी है। हम जीतने के बाद ये करेंगे..वो करेंगे..मगर ये क्या करेंगे..वो सभी जानते हैं।

इंदौर के एक विधानसभा क्षेत्र क्रमांक चार से एक भिखारी समाधान नाइक ने पर्चा दाखिल करके नेताओं को नकली और खुद को असली भिखारी बताते हुए जनता से वोट मांगा है।

नाइक का दावा है कि अगर वह विधायक बन गए तो गरीबों की हर समस्या का समाधान करेंगे, मगर भीख मांगना नहीं छोड़ेंगे। 58 वर्षीय नाइक को कुष्ठ रोग है। नाइक ट्राइसाइकिल पर घूम कर भीख मांग कर अपनी जिंदगी चला रहे हैं। उनकी इच्छा गरीबी को खत्म करने की है। उन्होंने भीख मांग-मांग कर धन इकट्ठा करके पर्चा दाखिल किया है।

नाइक का नारा है कि 'नकली भिखारी को छोड़ो और असली भिखारी को चुनो।' नाइक कहते हैं, नेता भी भिखारी हैं, वे चुनाव से पहले लोगों से नोट मांगते हैं और चुनाव में वोट। विधायक बन जाने पर वे रिश्र्वत की भीख लेने से पीछे नहीं रहते हैं। भिखारी खुलकर भीख मांगता है और वही असली भिखारी है।

नेता तो नकली भिखारी है, जब जनता को भिखारी ही चुनना है तो वह असली को चुने। नाइक ने ट्राइसाइकिल पर नारे भी लिख रखे हैं और आम लोगों से भीख के साथ वोट भी मांग रहे हैं। उन्हें इस बात का भरोसा है कि मतदाता उनकी बात सुनेंगे और वोट देने में भी पीछे नहीं रहेंगे।

नाइक ने जो कहा, क्या वह हकीकत नहीं है? फिर भी क्या कोई नाइक को गंभीरता से लेगा? चूंकि लोकतंत्र में हर किसी को अपनी बात कहने का अधिकार है, अगर नाइक अपनी बात कह रहे हैं तो इसमें बुरा क्या है? अब देखिए जनता किसे जिताती है असली भिखारी या नकली भिखारी को..फिर भी ये तो भिखारी हैं..भिखारियों का क्या..

Wednesday, November 5, 2008

आंसू नहीं थमते

स्वार्थ की राजनीति न होती
तो सरकारें निकम्मी न होतीं
न ही उस छुट भइये की पौ बारह होती
न मुंबई में उसकी बपौती होती
न ही उत्तर भारतीयों की हत्या होती
न ही वे विधवा होतीं
वे वोट के खातिर क्या नहीं करते
इनकी आंखों में आंसू नहीं थमते

Friday, October 31, 2008

खुद को भी तो बदलो

क्षेत्रवाद की राजनीति कर राज ठाकरे ने भले ही महाराष्ट्र की राजनीति में जगह बना ली हो, पर राष्ट्रीय राजनीति में अपना भविष्य शून्य कर लिया है। शायद उन्हें इसका आभास नहीं है अगर होता तो वह प्रेसवार्ता में यह न कहते कि सरकार बदलेगी। मेरा भी वक्त आएगा तब क्या करोगे।

राज का यह कहना तो ठीक है कि सरकार बदलेगी। पर जो वह अपना वक्त आने की बाट जोह रहे हैं, शायद उनका यह सपना हकीकत में न बदले। क्योंकि लोग अब इतने बेवकूफ नहीं हैं। वे एक क्षेत्रवादी को ज्यादा उठता हुआ देखना नहीं पसंद करेंगे। वे कुएं के मेढ़क को कुएं में ही रहना पसंद करेंगे।

भले ही समय के साथ बडे़ से बड़ा घाव भर जाता हो, पर जो घाव राज ने राहुल और धर्मदेव के परिजनों को दिए हैं वो क्या कभी भर सकेंगे?

दरअसल, हमारी सरकारें इतनी पंगु न होती तो क्या राज की अकड़ अभी तक बची होती?

चाहे कांग्रेस हो या भाजपा दोनों को अपने स्वार्थ दिखते हैं। ये दोनों दल इस मामले में इसलिए नहींपड़ते हैं, क्योंकि उन्हें अपना वोट बैंक कम होने का भय सता रहा है।

हां, यदि राज समय के साथ-साथ खुद को भी बदलें। यानी क्षेत्रवाद से हटकर राष्ट्रहित की बात सोचें तो शायद उनकी मुराद पूरी हो जाए!

Sunday, October 26, 2008

कैसे मनाएं दीवाली?

भले ही वे दूसरे का पेट भरते हों, पर खुद अब भी भूखे पेट हैं। दिन-रात कड़ी मेहनत के बाद भी वे अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पा रहे हैं। ऐसे में वे अपने परिवार की दूसरी जरूरतें कैसी पूरी करते होंगे। उन पर सभी कहर ढाते हैं। कभी बेमौसमी बारिश उन्हें खून के आंसू रुलाती है। कभी सूखा तो कभी कोई और आपदा।

भले ही हरेक पार्टी का नेता उनके हितैषी होने का दावा करता हो, पर उनकी गाढ़ी कमाई यूं ही उड़ाने से गुरेज नहींकिया जाता है। किसानों को न तो उन्हें सूदखोरों के चंगुल से मुक्ति मिल रही है और न ही बैंकों से कर्ज लेने के एवज में कमीशन देने से। यहीं कारण है कि वह कर्ज के दलदल में फंस कर रह गए हैं।

उनकी जरूरतें भले ही बढ़ रही हों, पर आमदनी घट रही है। हर ओर से निराश होकर वे मौत को गले लगा रहे हैं। फिर भी सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है।

महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में छह किसानों ने इसलिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि कीड़े लगने के कारण कपास, सोयाबीन और धान की फसल को नुकसान पहुंचने से वे आहत थे। निजी व्यापारी भी उन्हें कपास की काफी कम कीमत दे रहे थे, उससे भी किसान हताश हैं। ऐसे में वे किस तरह दीवाली मनाते? ये किसान वर्धा, चंद्रपुर, अकोला, भंडारा, यवतमाल और अमरावती जिलों के बताए जाते हैं। इस साल अब तक यहां आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 626 हो गई है।

इन किसानों के परिजनों पर क्या गुजर रही होगी? और वे कैसे मनाएं दीवाली। फिर भी न तो राज्य सरकार इस ओर ध्यान दे रही है और न ही केंद्र सरकार। सरकार कोई ऐसे ठोस कदम क्यों नहीं उठाती, ताकि अन्नदाता आत्महत्या करने के लिए मजबूर न हों या किसान यूं ही आत्महत्या करते रहेंगे और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेगी?

Friday, October 24, 2008

ये हैं अवाम के हितैषी

जिस तरह से हाथी के दांत दिखाने के और, और खाने के और होते हैं। ठीक उसी तरह हैं राजनेता। ये कहते कुछ हैं और करते कुछ और। राजनेताओं ने देश की क्या हालत कर दी है, यह किसी से छिपा नहीं है। चाहे वह छोटा नेता हो या बड़ा। मंत्री हो या केंद्रीय मंत्री। सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। ये जनता की खून-पसीने की कमाई उड़ाने से भी गुरेज नहीं करते हैं।

गृह मंत्री शिवराज पाटिल को ही ले लो। इन्होंने दिल्ली में महज 15 किलोमीटर जाने के लिए एमआई-17 हेलीकाप्टर का इस्तेमाल किया। इस हेलीकाप्टर के एक घंटे की उड़ान पर औसतन 2.66 लाख रुपये खर्च होते हैं। पाटिल ये सफर चंद रुपयों में पूरा कर सकते थे, फिर भी इन्होंने जनता की गाढ़ी कमाई हवा में उड़ा दी। तर्क दिया गया कि भारी ट्रैफिक से बचने और वक्त बचाने के लिए हेलीकाप्टर का इस्तेमाल किया गया। वक्त होता भी कैसे आंतरिक सुरक्षा का दारोमदार जो हैं इनके कंधों पर।

राज ठाकरे भी कहते कुछ और करते कुछ और ही हैं। यूं तो ये मराठी के हितैषी और उत्तर भारतीयों को खदेड़ने के लिए जाने जाते हैं। पर हकीकत कुछ और ही है। ये दूसरों को नसीहत देते हैं कि मुंबई में रहना है तो मराठी सीखों। और खुद घर में अंग्रेजी में बात करते हैं।

इन्होंने अपने कुत्तों का नाम अंग्रेजी में रखा है और इसी नाम से इन्हें बुलाते भी है। खुद इनका ही बेटा मराठी के बजाए विदेशी भाषा पढ़ रहा है। जिन उत्तर भारतीयों को ये आए दिन मुंबई से खदेड़ते हैं, मुसीबत में वहीं हिंदी भाषी इनके काम आते हैं। इनको जमानत हिंदी भाषी ने ही दिलाई है।

ये जो भी नौटंकी कर रह हैं, वह सिर्फ वोट बढ़ाने के लिए। भले ही ये मराठियों का हितैषी होने का दम भरते हो पर हकीकत कुछ और ही है।

जब इस तरह के नेता अवाम के हितैषी होंगे तो क्या होगा इस देश का..?

Tuesday, October 21, 2008

देर से क्यों जागी सरकार?

केंद्र सरकार को जो कदम बहुत पहले उठा लेना चाहिए था, उसे उठाने में इतनी देरी क्यों की? जब जम्मू जल रहा था, तब भी केंद्र काफी समय तक हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा और अब मुंबई में उत्तर भारतीयों पर राज ठाकरे के समर्थक जो कहर बरपा रहे हैं, क्या वह किसी से छिपा है? फिर भी केंद्रीय सत्ता बेखबर दिखी।

चौतरफा निंदा और विरोध के चलते अब भले ही सरकार जगी और राज की गिरफ्तारी हुई हो, पर गिरफ्तारी क्या किसी नौटंकी से कम है? सब कुछ सुनियोजित हो रहा है।

दरअसल, सरकार एक ओर तो लोगों को यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि राज को गिरफ्तार कर लिया गया है। दूसरी ओर, यह कोशिश चल रही है कि एक ही बार में राज पर जितने भी केस दर्ज हैं, उन सब का वारा-न्यारा हो जाए। कौन बार-बार की गिरफ्तारी का झंझट करेगा।

गृह मंत्री शिवराज पाटिल अब भले ही यह कर रहे हों कि हालात न सुधरे तो महाराष्ट्र में केंद्र दखल देगा। अभी तक केंद्र ने दखल क्यों नहीं दिया? क्या अभी तक उन्हें महाराष्ट्र में संवैधानिक नियमों की धज्जियां उड़ती नहीं दिख रही थीं?

केंद्रीय मंत्रियों लालू यादव, रामविलास पासवान ने राज की गुंडई पर भले ही प्रतिक्रिया व्यक्त की हो, लेकिन पाटिल मौन रहे? जबकि महाराष्ट्र उनका गृहराज्य है। और न ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज की गुंडागर्दी पर कुछ बोलने की जरूरत समझी। क्या यह हैरत की बात नहीं?

अब शिवसेना भी राज की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के पद चिन्हों पर चलने को आतुर है। उसने भी संसद में धमकी दी कि जल्द ही इससे भी बड़ा आंदोलन शुरू हो सकता है। कल कोई और दल भी तो इसी तरह की धमकी दे सकता है? फिर क्या करेगी सरकार?

अगर समय रहते प्रांतवाद का विद्वैष फैला रहे राज पर अंकुश लगाया गया होता तो क्या कोई भी सियासी दल संसद में इस तरह की धमकी देने की हिम्मत जुटा पाता?

Sunday, October 19, 2008

राज : ये कैसे काज?

इस बार गलती हुई सो हुई ! रेलवे को भविष्य में भर्ती करते समय सिर्फ महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे के समर्थकों के बारे में विचार करना चाहिए!! पूरे देश में चाहे वह सरकारी हो या निजी नौकरी सिर्फ राज के समर्थकों को ही मिलनी चाहिए!!! प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का पद भी उनके लिए ही आरक्षित कर देना चाहिए!!!!

तभी हो सकता है कि उत्तर भारतीय इनके कोपभाजन से बच सकें। अन्यथा ये यूं ही उन पर कहर बरपाते रहेंगे। कितने शर्म की बात है कि हम अपने ही देश में कहीं जा नहीं सकतें, नौकरी नहीं कर सकते। फिर संविधान में लोगों को देश में कहीं भी रहने और नौकरी करने के मिले अधिकार का क्या फायदा।

राज शायद यह भूल रहे हैं कि रेलवे उनकी बपौती नहींहै। रेल देश की संपत्ति है और इस पर सभी का हक है। चाहे वह जिस राज्य का हो। अगर ये लोग इतने ही इंटेलिजेंट हैं तो परीक्षा में बैठकर सामना करने से क्यों डरते हैं? ये ओपन एग्जाम है, जिसमें दम है वही जॉब लेगा। गुंडागर्दी के बल पर क्या नौकरी मिल जाएगी?

और इस पंगु सरकार चाहे वह महाराष्ट्र की हो या केंद्र की या फिर अन्य सियासी दल, इनसे कोई उम्मीद करना बेकार है। ये इस मामले में इसलिए हस्तक्षेप नहीं करेंगे। क्योंकि चुनाव सिर पर हैं, कहीं वोट पर असर न पड़ जाए। वर्ना राज जैसे छुटभैया नेता की क्या बिसात थी कि वह अपनी ओछी राजनीति चमकाता।

क्या महाराष्ट्र की जनता यह नहींजानती कि राज उनके हितैषी होने का दम भर रहे हैं या अपना वोट बैंक मजबूत कर रहे हैं? मुंबई में राज की मनमानी क्यों चल रह है?

Wednesday, October 15, 2008

ये ड्रामा क्यों ?

राजनीति का विकास विरोधी जो रूप इन दिनों रायबरेली में देखने को मिल रहा है क्या वह ठीक है? आखिर कांग्रेस और बसपा क्या साबित करना चाहती है। रेल कोच फैक्टरी को लेकर क्यों सियासी ड्रामा चल रहा है?

चूंकि रायबरेली सोनिया गांधी का चुनाव क्षेत्र है, और अपने क्षेत्र के विकास का हर सांसद को अधिकार है। मायावती ने मुख्यमंत्री के रूप में इस फैक्टरी के लिए जमीन आवंटित करके अपने उस दायित्व का निर्वाह किया था, जो एक मुख्यमंत्री का होता है। पूरे प्रदेश के विकास की जिम्मेदारी भी उसी पर होती है।

मगर उन्होंने इसे ठीक उस समय रद कर दिया, जब सोनिया इसके भूमि पूजन के लिए तारीख तय कर चुकी थीं। कहा गया कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि किसानों में अपनी जमीन अधिग्रहण को लेकर रोष था। जमीन इसी साल मई में आवंटित की गई थी।

यह फैक्टरी लगाने की घोषणा भी रेलमंत्री लालू प्रसाद ने अपने इसी साल के रेल बजट में की थी। मायावती का कहना हैं कि जब इस जमीन पर परियोजना स्थापित करने की रिपोर्ट तक तैयार नहीं की गई है और वे सभी प्रारंभिक औपचारिकताएं भी नहीं हुई हैं, जो किसी परियोजना को लगाने के लिए जरूरी होती हैं तो भूमि पूजन क्या केवल लोकसभा चुनाव को देखते हुए किया जा रहा था।

चूंकि वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं और उन्हें यह सवाल पूछने का हक है, मगर अपने प्रदेश के औद्योगिक विकास के लिए भी उनका कर्तव्य है कि वह किसी ऐसी परियोजना के मार्ग में बाधक न बने जिससे अवाम का भला होता हो।

सोनिया को भी यह देखना होगा कि केवल रायबरेली में ही पूरा उत्तर प्रदेश नहीं समाया हुआ है। प्रदेश में और भी कई जिले हैं। ऐसे में यह फैक्टरी और भी कहीं लगाई जा सकती है।

समाजवादी पार्टी की कांग्रेस से नजदीकी ही बसपा की कटुता का कारण है। मगर इस कटुता के कारण क्या प्रदेश के विकास का बाधक बन जाना ठीक है। दोनों सियासी दलों को ये भी जान लेना चाहिए कि अवाम को ज्यादा दिन तक धोखे में नहीं रखा जा सकता है।

Saturday, September 27, 2008

क्योंकि तू बेकसूर है

दिल्ली इतनी महफूज न होती
तो फिर क्यों दहलती
आतंकी पहले ई-मेल करते हैं
फिर फोन करते हैं
मगर वो नहीं जागते हैं
तब विस्फोट करते हैं
बेकसूर निशाना बनते हैं
फिर अफरा-तफरी मचती है
तब उनकी नींद खुलती है
और चौकसी बढ़ती है
फिर बयानबाजी शुरू होती है
कोई कहता है निंदनीय है
कोई कहता है अफसोसजनक है
कोई कहता है दुखद है
मगर वो क्या करें, जिन्होंने अपने जिगर के टुकड़े को खो दिया है
जिन बेकसूर लोगों का लहू बहा है
जब राष्ट्रीय राजधानी इतनी महफूज है
तो अवाम कितनी महफूज है यह बताने की जरूरत भी नहीं है
करार जरूरी है
अमन की जरूरत नहीं हैं
तेरा भी तो कसूर है
क्योंकि तू बेकसूर है
इसीलिए तेरा लहू बहता है
फिर भी इन्हें नहीं दिखता है.

Saturday, September 20, 2008

कुछ तो शर्म करो

दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा डेंगू के शिकार अपने बेटे के लिए तो खून नहीं दे पाए, मगर देश के लिए अपनी जान दे दी। मगर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन [संप्रग] अध्यक्ष सोनिया गांधी को इस शहीद (मोहन चंद शर्मा) को श्रद्धांजलि देने तक के लिए समय नहीं मिला।
अगर शनिवार को निगमबोध घाट पर सोनिया पहुंची होती तो देश में यह संदेश जाता कि मौजूदा सरकार आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को गंभीरता से ले रही है। मगर इन्होंने मौके पर जाना उचित नहीं समझा।

ऐसा नहीं है कि सोनिया चाहती तो क्या समय नहीं निकाल सकती थीं। मगर ये तो नेता हैं इसीलिए दूर की सोचते हैं! इन्होंने सोचा कि आगामी चुनाव में कहीं मुस्लिम वोट कम न हो जाए! इसीलिए इन्होंने शर्मा को श्रद्धांजलि देनी उचित नहीं समझी !!

गौरतलब है कि शर्मा उन आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हुए थे, जिन्होंने राष्ट्रीय राजधानी को बम धमाकों से दहला दिया था। क्या शर्मा की मौत इतने सम्मान की भी हकदार नहीं कि देश के राजनीतिक और प्रशासनिक प्रमुख मौके पर पहुंच कर श्रद्धांजलि दें?

आखिर सोनिया क्यों नहीं पहुंची निगमबोध घाट पर? सरकार का यह रवैया आतंकियों के लिए हौसलाअफजाई ही तो है, इससे तो आतंकवाद को बढ़ावा मिलेगा। इसका जिम्मेदार कौन है?
सरकार के इस रवैये के बाद क्या फिर कोई बेटे को देने की बजाए देश के लिए अपना लहू बहाएगा? अब उनके दिल पर क्या गुजरती होगी, जिन्होंने अपना बाप खोया है।


उस बाप पर क्या गुजरती होगी, जिसने अपने बेटे को मुखाग्नि दी। उस पत्‍‌नी का रो-रोकर क्या हाल हुआ होगा, जिसने अपना सुहाग को दिया। मगर इन नेताओं को क्या कहें, इन्हें तो शर्म आती नहीं।

Monday, September 15, 2008

तमाशबीन बने रहेंगे सफेदपोश

बड़े मियां

वे दिल्ली दहलाते रहे
ये पोशाक बदलते रहे
वे दर्द से कराहते रहे
ये केश संवारते रहे
फिर भी उन्हें मिली क्लीन चिट
मिलती भी क्यों ना चुनाव में होना जो है हिट

छोटे मियां

पहले राज्य सरकारों को कोसने से थे थकते नहीं
अब कहते हैं एक अरब अवाम की सुरक्षा मुनासिब नहीं
कहते हैं हर धमाके से रहा हूं सीख
फिर भी अवाम की सुनाई नहीं देती चीख
ये सीखते रहेंगे, वे धमाके करते रहेंगे और लोग चीखते रहेंगे
फिर भी तमाशबीन बने रहेंगे सफेदपोश.

Sunday, September 14, 2008

सत्ता की लालसा

सत्ता रूपी सुख है ही ऐसा जो एक बार इसे भोग ले, उसका जी इस सुख को बार-बार भोगने के लिए मचलता है। ठीक यही हाल भाजपा का है। वह सत्ता में आने के लिए बहुत जल्दी में है। इसके लिए वह कुछ भी कर गुजरने को आतुर है। लेकिन पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि किसी भी मुद्दे पर उसकी स्पष्ट नीति नहीं है।

जब देश में चुनावी बिगुल बजता है तो भाजपा को राम की याद सताने लगती है। सत्ता में आते ही राम को भूलना शुरू कर देती है। अगर ऐसा न होता तो उत्तर प्रदेश में भाजपा की इतनी फजीहत न होती। पार्टी फिर धार्मिक मुद्दों के सहारे चुनावी नैय्या पार करने में जुटी है। इस बार रामसेतु व अमरनाथ प्रकरण को भुनाना चाहती है।

जब पार्टी सत्ता में होती है तो जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को कायम रखने वाले अनुच्छेद 370 को ताक पर रख देती है, जब सत्ता से बाहर होती है तो उसे वहीं सबसे बड़ा मुद्दा नजर आता है। जब केंद्र में भाजपा की सरकार होती है तो अमरनाथ यात्रियों की नृशंस हत्याएं होती हैं। कश्मीर में गैर मुस्लिमों का सामूहिक नरसंहार होने पर भी कश्मीरी पंडितों के वापस घाटी में भेजने की कोई योजना तैयार नहीं की जाती और जब पार्टी सत्ता से बाहर होती है तो इसे अमरनाथ यात्रा के राष्ट्रीयकरण और घाटी में कश्मीरी पंडितों के लिए अलग से क्षेत्र आवंटन व्यावहारिक लगता है।

क्या अपने ही राज्य में कश्मीरी पंडितों के लिए अलग से इलाके मुकर्रर किए जा सकते हैं? क्या किसी धार्मिक यात्रा का राष्ट्रीयकरण किया जा सकता है?पार्टी के आला नेता सोचते हैं कि वादे करने में क्या जाता है, चुनावी मौसम में सब चलता है। मगर यह ऐसी राजनीति है जो देश को तोड़ने का काम करती है जोड़ने का नहीं। काश! यह बात हमारे नेताओं की समझ में आती।

Friday, September 12, 2008

मंत्री जी का कमाल

मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव क्या करीब आए
नेता और मंत्री भी आम जन के पास आए
जनता को सौगातें देने की मची होड़
इसीलिए ये मेहनत कर रहे हैं जीतोड़
कृषि व सहकारिता मंत्री गोपाल भार्गव का कमाल
एक दिन में ग्यारह सौ शिलान्यास कर मचाया धमाल
इसलिए नहींकि क्षेत्र का विकास हो
इसलिए कि इनकी चुनावी नैय्या पार हो

Tuesday, September 9, 2008

क्या शाहरुख दिल्ली के नहीं?

अगर एक प्रांत का नागरिक दूसरे प्रांत में जाकर नाम, इज्जत, दौलत और शोहरत कमाता है तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) वोट बैंक मजबूत करने के लिए उस पर भी सियासत करने से बाज नहीं आ रही है।

शिवसेना यह अच्छी तरह से जानती है कि मनसे उससे प्रांतीय मुद्दा छीनने के लिए आमदा है। इस कारण शिवसेना मनसे से दो कदम आगे रहना चाहती है। इसीलिए बाल ठाकरे ने जया बच्चन पर टिप्पणी तो की ही पर साथ में शाहरुख खान पर भी तीखा प्रहार किया। यह सभी जानते हैं कि इस मुद्दे पर अगर जरा सी पकड़ कमजोर हुई तो मराठी लोगों का एक बड़ा वोट बैंक हाथ से खिसक सकता है। लेकिन अगर इस राजनीति में सबसे ज्यादा किसी का नुकसान हो रहा है तो वह है आम आदमी जिसके मन में मुंबई में रहने और कमाने को लेकर कहींन कहीं खौफ पनप रहा है।

शिवसेना ने अपने मुख्यपत्र सामना के संपादकीय में लिखा है कि शाहरुख खुद को दिल्ली वाला कहकर प्रांतवाद को बढ़ावा देते हैं। मुंबई ने उन्हें नाम, इज्जत, दौलत व शोहरत दी और ये सब कुछ भूलकर खुद को दिल्ली वाला बताते हैं। वे भूल गए कि जब वह मुंबई आए थे, तब उनके पास पैर फैलाने की भी जगह नहींथी। आज बंगला, नौकर-चाकर होने के बाद वे सिर्फ दिल्ली वाला हूं कहकर महाराष्ट्र के शौर्य का अपमान कर रहे हैं।

जिस तरह से आज बाल ठाकरे कह रह हैं कि अगर आप (शाहरुख) दिल्ली से हैं तो महाराष्ट्र क्यों आए। इसी तरह कल दूसरे प्रांतों के नेता भी अपना वोट बैंक मजबूत करने के लिए कहने लगे तो कोई ताज्जुब की बात नहीं।

Monday, September 8, 2008

क्या माफी मांगे जया?

भारतीय संविधान में किसी भी नागरिक को देश में कहीं भी रहने, काम करने, बोलने का अधिकार प्राप्त है। फिर अगर जया बच्चन ने रविवार को द्रोण के प्रोमो के दौरान यह कह दिया कि हम हिंदी के लोग हैं और हिंदी में ही बात करने चाहते हैं। तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा।

हालांकि इस बात की शुरुआत प्रियंका चोपड़ा ने की थी। कहा था कि उन्हें हिंदी में बात करना पसंद है। इस पर जया ने उनका समर्थन कर दिया। इसके बाद जया ने यह भी कह दिया कि मराठी लोग उन्हें माफ करें।

इसके बावजूद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के अध्यक्ष राज ठाकरे का कहना है कि मनसे उस समय तक बच्चन परिवार की फिल्मों के प्रदर्शन की अनुमति नहीं देगा, जब तक जया अपनी कथित मराठी विरोधी टिप्पणी के लिए माफी नहीं मांग लेती। क्या राज की हिटलरशाही जायज है? क्या जया को सचमुच माफी मांग लेनी चाहिए?

Saturday, September 6, 2008

राह आसान नहीं

रूठ गया था उनका यार
हो गए थे मानसिक रूप से बीमार
फिर भी हिम्मत नहीं हारी
भारी मतों से जीत गए जरदारी
ज्यादा खुशी भी ठीक नहीं
आगे की राह आसान नहीं.

Wednesday, September 3, 2008

विरोध ये क्या गुल खिला रहा

न ये धरना और प्रदर्शन होते
न टाटा सिंगूर को टाटा करते
न उसे बेटों की नौकरी जाने की चिंता सताती
और न ही उसने जहर खाकर खुदकुशी की होती
सुहाग तो उसका उजड़ गया
विरोधियों का क्या बिगड़ गया
बाप तो उनका नहीं रहा
विरोध ये क्या गुल खिला रहा.

Sunday, August 31, 2008

भूख से बिलख रहे लाल

बिहार में बाढ़ हुई और बिकराल
भूख से बिलख रहे हैं उनके लाल
कई दिन से नहीं मिला निवाला
बाढ़ ही खा गई उनका रखवाला
किसकी छाती से चिपक रात बिताएं
और किसे अपना दुख-दर्द सुनाएं
सिर्फ इंसान ही नहीं फंसे हैं भाई
जानवरों की जान पर भी बन आई
उनके संकट में भी इन्हें दिखे वोट
तभी तो बंटे पांच-पांच सौ के नोट.

Wednesday, August 27, 2008

रोटी कैसे मुहैया कराई

गुरुजी ने फिर झारखंड की गद्दी कब्जाई
आते ही बारह सूत्री प्राथमिकताएं गिनाई

यह जरूरी नहीं ये पूरी भी हो पाएंगी भाई

हर किसी को रोटी, कपड़ा, मकान कैसे मुहैया कराई

पहले नौ दिन थी धाक जमाई

इस बार जरूर गुल खिलाई.

Sunday, August 24, 2008

कब मिलेगी शांति

महबूबा और उमर ने फिर उगली आग
खामोश केंद्र न जाने अलाप रहा कौन सा राग

अंगारों में तब्दील हो चुकी है घाटी की शांति
क्या यहां की अवाम को कभी मिलेगी भी शांति

कब तक सिकेंगी ये सियासी रोटियां
और फिट करते रहेंगे अपनी गोटियां।

Thursday, August 21, 2008

अब किसकी बारी


नेताओं की बलिहारी, जमीन की खातिर जम्मू में दी जा रही गिरफ्तारी

अब बच्चों की बारी, हजारों ने दी गिरफ्तारी

नर-नारी तो दे चुके गिरफ्तारी, अब किसकी बारी.

Monday, August 18, 2008

इस्तीफे में समझी भलाई

जब बचने के लिए कोई तरकीब नहीं दिखी भाई।
तब मुशर्रफ ने इस्तीफा देने में ही समझी भलाई।।

पड़ोसी मुल्क का कर दिया बंटाधार।
देश छोड़ने पर अब भी संशय बरकरार।।

तानाशाही का अंत देख जनरल की आंखों में आंसू आए।
आएं भी क्यों न मुश को बुश भी नहीं बचा पाए।।

ये जो कुर्सी न होती...

ये जो कुर्सी न होती तो कुछ भी न होता

न तो कोई समर्थन देता और न ही वापस लेता

न खरीदे जाते सांसद, न शर्मसार होती संसद

न सीएम बनने के लिए गुरुजी चलाते 'कोड़ा'

और न ही संकट में होते कोड़ा.

Wednesday, August 13, 2008

आसान है उकसाना

मुद्दा कोई भी हो आसान है लोगों को उकसाना।
क्योंकि यह है सियासी दलों का कारनामा।।

मुश्किल तो तब होगी, जब हो नियंत्रित करवाना।
जम्मू-कश्मीर में भी कुछ ऐसा ही हुआ।।

और हो गई स्थिति नियंत्रण से बाहर।
केंद्र को नहीं आ रही समझ, कैसे बुझे आग।।

कब तक झुलसते रहेंगे इस आग में लोग।
और तमाशबीन बने रहेंगे ये सफेदपोश।।

Tuesday, August 12, 2008

कब तक जलेगा जम्मू-कश्मीर

जिस तरह रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था, आज उसी तरह जम्मू-कश्मीर जल रहा है केंद्र सरकार बांसुरी बजा रही है।

अगर ऐसा न होता तो श्री अमरनाथ जमीन विवाद को लेकर भड़की विरोध की चिंगारी जम्मू को चपेट में नहींलेती। जम्मू-कश्मीर प्रशासन भले ही हालत पर काबू पाने की कोशिश कर रहा है, पर उसका कोई असर होता दिन नहीं रहा है।

अगर सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों से ही जम्मू-कश्मीर समस्या का हल निकलना होता तो कब का समाधान हो गया होता। फिर धरती का 'स्वर्ग' कहा जाने वाला भू-भाग आज इतना उपेक्षित न होता, और न ही घाटी का अमन आज अंगारों में तबदील होता।

हकीकत तो यह है कि जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर न तो कभी कांग्रेस ने ईमानदारी दिखाई और न ही भाजपा ने। इन सियासी दलों ने श्रीनगर में जाकर कश्मीरियत और दिल्ली में आकर हुर्रियत का रोना रोया। यहीं कारण है कि आज भी यह समस्या जस की तस है।

कब तक जम्मू-कश्मीर जलेगा और कैसे हल होगा श्री अमरनाथ जमीन विवाद?

Wednesday, August 6, 2008

..तो फिर कौन मदद करेगा देश की

भले ही काफी कुछ बदला है पर 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' की मानसिकता में शायद अभी तक बदलाव नहीं आया है।

अगर आया होता तो आज शायद देश के कुछ राजनीतिज्ञ, अफसर, जज व अन्य लोग सरकारी बंगलों को अपनी बपौती समझकर उसमें सांप की तरह कुंडली मारकर नहीं बैठते। शायद वह सरकारी बंगलों को इसलिए नहीं खाली कर रहे हैं, क्योंकि इसे वह अपनी संपत्ति समझ रहे हैं। अगर वह इन्हें खाली कर देंगे तो फिर इनकी देखभाल कौन करेगा।

इन सरकारी बंगलों को खाली कराने के लिए राज्य व केंद्र सरकार कड़ा रुख नहीं अपनाती है। क्योंकि सरकार भी तो इन मेहरबान है, अगर नहीं होती तो क्या सरकार इतनी लचर हो गई है कि वह इन बंगलों को न खाली करा सके। खाली तो करा सकती है, पर कराती नहीं है।

शायद सुप्रीम कोर्ट को भी इस बात का अहसास हो गया है, तभी तो उसने यह निराशाजनक टिप्पणी दी है कि...' पूरी सरकारी मशीनरी भ्रष्ट है'। 'भगवान भी इस देश की मदद नहीं कर सकता, वह भी सिर्फ मूक दर्शक ही बना रहेगा।'

अगर इस टिप्पणी के बाद भी राज्य व केंद्र सरकार की आंखें नहीं खुलती हैं और वह सरकारी बंगलों में काबिज लोगों को नहीं खदेड़ती है, तो फिर उससे क्या अपेक्षा की जाए। आज ये लोग सरकारी बंगलों पर काबिज हैं, कब किसी के घर व जमीन पर भी तो कब्जा कर सकते हैं। फिर क्या होगा।

Tuesday, July 29, 2008

ये आग कब बुझेगी

जम्मू जल रहा है और केंद्र सरकार खामोश बैठकर तमाशा देख रही है। आखिर केंद्र कब तक जम्मू में भड़की आग को यूं ही नजरअंदाज करता रहेगा। अब तक के हालात से यह नहीं लगता है कि बिना केंद्र के हस्तक्षेप के जम्मू में आग बुझ पाएगी।

जम्मू में भड़की आग को सिर्फ श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड की जमीन के लिए जम्मूवासियों की जंग समझना भूल है। दरअसल यह जन आंदोलन कश्मीरी नेताओं की कश्मीर केंद्रित, अलगाववादी व सांप्रदायिक सोच के खिलाफ जम्मू संभाग के उन सभी राष्ट्रवादियों का आक्रोश है, जो श्राइन बोर्ड की जमीन के बहाने फूट पड़ा है।

श्री अमरनाथ जमीन मुद्दे पर जम्मू संभाग में फैली आग को बुझाने के लिए अगर शीघ्र ही कुछ कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले दिनों में स्थिति और भी गंभीर हो सकती है। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड से भूमि वापस लिए जाने के बाद जम्मू संभाग में शुरू हुए आंदोलन का दबाने के लिए प्रशासन और पुलिस ने कुछ ऐसे कदम उठाए, जिससे लोगों की भावनाएं काफी आहत हुई हैं। प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई ने आग में घी का काम किया, जिससे आंदोलन उग्र होता जा रहा है।

जमीन वापस लिए जाने के मुद्दे पर जम्मू की जनता को भी अपने आक्रोश का प्रदर्शन करते समय संयम का परिचय देने के साथ यह सुनिश्चित करना होगा कि आंदोलन शांतिपूर्ण बना रहे।

लाशों के ढेर पर राजनीति

आतंकी धमाकों ने बेंगलूर व अहमदाबाद को तो बेगुनाहों के खून से रक्तरंजित कर ही दिया है, पर देश के कई अन्य शहरों में भी ऐसे ही धमाकों की धमकी से लोग सहमे हुए हैं।

इन धमाकों का दिल दहला देने वाला मंजर किसी पत्थर दिल इंसान को भी खून के आंसू रुला देने के लिए काफी है। लेकिन सियासी दल लाशों के ढेर पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं। केंद्र सरकार जहां संघीय जांच एजेंसी की हिमायत करने में जुट गई है, वहीं विपक्षी पोटा कानून की बहाली की हिमाकत कर रहा है।

कहा जा रहा है कि हादसे सांसदों की खरीद-फरोख्त के मामले को दबाने के लिए कराए गए हैं। जब सारा देश आतंकवाद सेपीडि़त लोगों के घावों पर मरहम लगा रहा है। तब क्या राजद को दिल्ली में बैठकर सांसदों की खरीद-फरोख्त के मुद्दे पर सरकार को घेरने की रणनीति बनाना उचित है।

ये ऐसा वक्त है, जब सभी सियासी दलों को मिल-बैठकर आतंकवाद की समस्या के समाधान का रास्ता खोजना चाहिए। मगर राजनेताओं को एक-दूसरे पर छींटाकशी से समय मिले तब ना।

Saturday, July 26, 2008

दहशत के सौदागर


बेंगलूर व अहमदाबाद के धमाकों ने फिर सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है। सरकार जहां जीत का जश्न मना रही है, वहीं इन धमाकों ने फिर जता दिया है कि आतंकी कभी भी अमन पसंद लोगों को चैन से नहीं रहने देंगे।


बेंगलूर देश की संपन्नता का प्रतीक है। ऐसे में यहां सुरक्षा तंत्र को देश की राजधानी जैसा ही सुदृढ़ किया जाना चाहिए था, लेकिन 28 दिसंबर 2005 को भारतीय विज्ञान संस्थान में आतंकी हमले से भी राज्य सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा।


मुंबई में 12 मार्च 93 को सिलसिलेवार बम विस्फोटों में 250 लोगों की मौत हुई थी और 700 घायल हुए थे। तबसे हैदराबाद, मालेगांव, फैजाबाद, वाराणसी, लखनऊ, अजमेर व जयपुर में धमाके हो चुके हैं।
जब धमाके होते हैं, उस वक्त तो सरकार हरकत में आ जाती है और विपक्षी भी खूब हो हल्ला मचाते हैं।


जब तक इन आतंकियों से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई जाती, तब तक ऐसे ही धमाके होते रहेंगे। फिर भी सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगेगी और निर्दोष लोग इन आतंकियों का निशाना बनते रहेंगे। आतंकियों का जितना दुस्साहस बढ़ रहा है, सरकार उतनी ही विवश दिख रही है। सरकार को आतंकवाद से सख्ती से निपटना होगा, तभी आम जन को अमन-चैन मिल सकेगा।

आस्था पर फिर चोट

भगवान श्रीराम की महिमा को कौन नहीं जानता है। पर केंद्र सरकार बार-बार देशवासियों की आस्था पर चोट कर रही है। कहीं यह सारा खेल द्रमुक का समर्थन बरकरार रखने के लिए ही तो नहीं खेला जा रहा है। अगर ऐसा होगा भी तो कोई बड़ी बात नहीं है। क्योंकि जब सरकार अपराधी सांसदों को जेल से बाहर निकाल सकती है, उनको खरीद सकती है तो वह कुछ भी कर सकती है।

संसद को शर्मसार कर बहुमत साबित करने के बाद केंद्र की यूपीए सरकार ने फिर भगवान श्रीराम के अस्तित्व को नकार दिया है। सुप्रीम कोर्ट में सेतु समुद्रम परियोजना पर केंद्र सरकार की ओर से पेश वकील ने यह कहकर विवाद को फिर हवा दे दी है कि रामसेतु भगवान श्रीराम ने खुद ही तोड़ दिया था।
इससे पहले भगवान श्रीराम के अस्तित्व पर सुप्रीम कोर्ट में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा दिए गए हलफनामे में यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया था कि भगवान श्रीराम के अस्तित्व के कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं। क्या यह हलफनामा हिंदू मानसिकता से खिलवाड़ नहीं था? जब इसका विरोध होने लगा तो केंद्र ने यह हलफनामा वापस ले लिया। अब फिर श्रीराम सेतु के अस्तित्व को यह कहकर नकारने का प्रयास किया गया कि भगवान राम ने सेतु खुद ही तोड़ दिया था। साथ ही, केंद्र सरकार वकील ने यह कहकर सभी को हैरत में डाल दिया कि सितंबर ख्007 में केंद्र द्वारा दाखिल हलफनामा बाहरी परिस्थितियों के कारण वापस लिया गया था। इस तरह केंद्र सरकार ने न केवल वापस लिए गए हफलनामे को सही ठहराया, बल्कि राम के अस्तित्व को फिर नकार दिया।

अब सवाल यह है कि महर्षि वाल्मीकि व कवि कालिदास को गलत मानकर कंब रामायण पर कैसे विश्र्वास किया जा सकता है, जो सर्वमान्य नहीं हैं। सरकार को लोगों की आस्था से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।

Tuesday, July 22, 2008

संसद शर्मसार, लोकतंत्र बेजार; जनता लाचार

आखिरकार कई दिनों से चल रहे सियासी ड्रामे का पटापेक्ष हो ही गया। सरकार तो जीत गई, पर लोकतंत्र हार गया। लोकतंत्र के पवित्र मंदिर को आतंकियों की गोली से इतना आघात नहीं पहुंचा था, जितना 22 जुलाई को उसके खुद के नुमाइंदों ने पहुंचा दिया है।

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार ने भले ही बहुमत हासिल कर लिया हो, पर संसदीय परंपराओं पर जो कालिख पुती है उसके लिए सभी सियासी दल बराबर के जिम्मेदार हैं। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार संसद में नोटों की गड्डियों को लहराया गया। दिल्ली की गद्दी के लिए दोनों पक्षों ने सभी दांवपेच खूब खेले। इस दौरान किसी ने टिकटों का तो किसी ने नोटों का झांसा दिया। इन सब में अगर आहत हुई है तो लोकशाही।

क्या यहीं सब देखने के लिए देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया गया था। लोकतंत्र को नोटतंत्र में तबदील करने की साजिश क्यों रची गई। क्या वाकई ऐसा हुआ है या फिर कांग्रेस की बदनाम करने की साजिश है। कुछ भी हो पर जिस तरह से संसदीय गरिमा तार-तार हुई है, उससे लोकतंत्र के प्रति आस्था रखने वाले सिर्फ शर्म से सिर झुकाने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं।

'विश्वास' पर अविश्वास

विश्वास प्रस्ताव ऐसा, जिस पर किसी को विश्वास ही नहीं है। चाहे वह सत्ता पक्ष हो या फिर विपक्ष। जो विश्वास हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं विश्वास उन्हें भी नहींहै, और न ही उन्हें जो विश्वास हासिल करने की कोशिश को नाकाम करने में लगे हैं।

जो सरकार को बचाने में जुटे हैं, भले ही वह यह दावा कर रहे हों कि मंगलवार को लोकसभा में विश्वास मत प्रस्ताव पर उन्हें जीत हासिल हो जाएगी, पर उनके मन में भी संशय है। यहीं हाल विपक्ष का भी है जो सरकार गिराने में लगा है, पर इसमें उसे सफलता मिल पाएगी इसका भी कोई भरोसा नहीं है।
विश्वास मत प्रस्ताव का नतीजा चाहे सत्ता पक्ष के हक में जाए या फिर विपक्ष के, पर आम जनता व राजनीतिक दलों में विश्वास और कमजोर होना तय है।

फिर भी अब देखना यह है कि जिन अपराधी सांसदों को जेल से बाहर निकालकर लाया गया है, और जिन सांसदों को खरीद कर लाया गया है क्या वह सरकार को बचा पाएंगे? अगर सरकार बच भी जाती है तो हितैषी मनमाना ओहदा तो लेंगे ही ना। आम जनता की दुश्वारियां तो कम होंगी नहीं।

Sunday, July 20, 2008

ये कैसा 'जनतंत्र'

देश की राजनीति ऐसी मंडी में तबदील हो गई है, जहां हर चीज की नीलामी हो रही है। सांसदों की जहां 25 से 30 करोड़ रुपये में नीलामी हो रही है, वहीं मंत्रिपद की भी बोलियां लगाई जा रही हैं। सरकार को बचाने के लिए अपराधी सांसद जेल से बाहर निकाले जा रहे हैं। ये कैसा 'जनतंत्र' है। क्या यहीं सब देखने के लिए देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया गया था?

जब सरकार को बचाने के लिए इस तरह की सौदेबाजी हो सकती है तो हो सकता है कि कल देश का ही सौदा कर दिया जाए। जब देश का प्रधानमंत्री सरकार को बचाने के लिए कोई भी ओछे हथकंडे अपना सकता है, तो दूसरों के बारे में क्या कहा जाए। जब हर चीज की बोली ही लग रही है तो अगर सरकार बच भी जाती है तो कोई बड़ी बात नहींहै। लेकिन संसद में यदि सरकार अपराधी सांसदों के बल पर बहुमत साबित भी कर लेती है तो क्या आम आदमी को न्याय मिल सकेगा।

परमाणु करार देश के हित में है या नहींये तो बाद की बात है। लेकिन जिस देश का प्रधानमंत्री ही सरकार को बचाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा बैठा हो तो उसको अपने पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है।

Sunday, July 13, 2008

निकल गई हेकड़ी

चार साल तक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार को अपने इशारों पर नचाया। अब खुद नाचने पर मजबूर हो गए वामदल।

वामदल सरकार को मुश्किल में डालने के लिए समर्थन वापसी की धमकी दे रहे थे। उनकी यह मंशा थी कि सरकार परमाणु करार पर पीछे हटे। अगर सरकार करार पर आगे बढ़ती है तो समर्थन वापस लेकर उसे मुश्किल में डाल दिया जाएगा। लेकिन उन्होंने शायद यह नहींसोचा था कि समर्थन वापस लेने के बाद उनकी हेकड़ी निकल जाएगी।

खुद को आम जनता का हितैषी बताने वाले वामदलों ने पिछले चार साल में परमाणु करार के विरोध के अलावा कोई मुद्दा नहींउठाया। क्या इस दौरान उन्हें आसमान छूती महंगाई नहीं दिखी। इस कारण देर-सबेर जब भी चुनाव होंगे तो वामदलों को उसका लाभ मिलना मुश्किल होगा। ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि पिछले चार साल में इन्होंने जनता से जुड़ा कोई भी ऐसा मुद्दा नहीं उठाया है, जिसका चुनाव में इनको लाभ मिलता।

पश्चिम बंगाल में पंचायत व नगर पालिका चुनाव ने भी यह साबित कर दिया है कि अब वहां लाल रंग की चमक फीकी पड़ती जा रही है।

Saturday, July 12, 2008

प्रतिशोध की राजनीति

राजनीति में सब जायज है ! न तो कोई किसी का दोस्त है और न ही कोई किसी का दुश्मन। जो कल तक दुश्मन थे, वे आज दोस्त हो गए और जो दोस्त थे, वे दुश्मन हो गए।

कांग्रेस किस तरह से बहुमत जुटाने के लिए ओछे हथकंडे अपना रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। जो राजनीतिक दल कल तक एक-दूसरे को जमकर कोसने से नहीं चूकते थे, आज वह एकजुट हो गए हैं। बहुमत जुटाने के लिए क्या कुछ नहीं हो रहा है। चाहे वह प्रतिशोध की राजनीति हो या फिर ब्लैकमेलिंग। विरोधियों को डराने-धमकाने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है।

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो [सीबीआई] ने आय से अधिक संपत्ति मामले में पर्याप्त सबूत होने का दावा कर चार्जशीट भी दाखिल कर दी है। ये वहीं मायावती हैं, जो कल तक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को समर्थन दे रही थीं। तब तक तो यह सरकार की काफी खास थीं, पर जब से इन्होंने संप्रग से समर्थन वापस लिया, तब से ये संप्रग की आंखों की किरकरी बन गर्ई।

समाजवादी पार्टी [सपा] का समर्थन मिलते ही सरकार ने विरोधियों [खासकर बसपा] को ठिकाने लगाने की कवायद शुरू कर दी है। क्या यहींसब होता है लोकतंत्र में। यह तो सीधे-सीधे ब्लैकमेलिंग हुई। जो समर्थन दे, उसके खिलाफ सीबीआई शांत हो जाए, जो न दे उसे फंसा दिया जाए।

विश्वासमत हासिल करने के लिए यह कवायद कहां तक उचित है। भले ही सरकार किसी तरह से संसद में बहुमत हासिल कर ले। पर जनता की नजर में तो सरकार पहले से ही हार चुकी है।

प्रधानमंत्री मनमोहन की परमाणु करार करने की जिद कहां तक ठीक है। प्रधानमंत्री जितना करार के लिए बेकरार हैं, काश! वह इतना महंगाई कम करने के लिए बेकरार होते तो शायद आम आदमी को कुछ राहत ही मिल जाती। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया।

Tuesday, July 8, 2008

ये तो होना ही था

जम्मू-कश्मीर में श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद को लेकर पीपुल्स ड्रेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) द्वारा गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेते ही यह आभास होने लगा था कि गुलाम नबी आजाद सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चलेगी।
विश्वासमत पर मतदान से पहले ही आजाद ने इस्तीफा इसलिए दे दिया, क्योंकि उन्हें पता था कि वह विश्वासमत नहीं हासिल कर पाएंगे। अब सवाल यह उठता है कि आजाद ने इस्तीफा देने में इतनी देरी क्यों की। उन्हें पीडीपी के समर्थन वापस लेते ही इस्तीफा दे देना चाहिए था। लेकिन उन्होंने तब इस्तीफा इसलिए नहीं दिया था, क्योंकि उन्हें पूर्ण विश्वास था कि वह पीडीपी को तोड़ लेंगे या फिर नेशनल कांफ्रेंस को समर्थन देने के लिए तैयार लेंगे। लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाए।
आजाद का अपने मंत्रियों सहित इस्तीफा दे देने से राज्य में राजनीतिक संकट और गहरा गया है। प्रदेश में ऐसा कोई दल नजर नहीं आ रहा है जो दूसरे दलों से गठजोड़ कर नई सरकार बनाने का दमखम रखता हो। ऐसे में राज्य में राष्ट्रपति शासन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
अब देखना यह है कि केंद्रीय नेतृत्व किस तरह से जम्मू-कश्मीर में स्थिति को सामान्य बनाए रखने के लिए कदम उठाता है। हालांकि इसके दो ही विकल्प हैं कि या तो अगली व्यवस्था तक जम्मू-कश्मीर में आजाद को कार्यकारी मुख्यमंत्री के तौर पर बने रहने दिया जाए या फिर राष्ट्रपति शासन लागू किया जाए।

Sunday, July 6, 2008

सियासी 'खेल'

जम्मू-कश्मीर में श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी जमीन वापस लेने को लेकर विरोध की आग ठंडी होने का नाम नहीं ले रही है। विरोध की इस ज्वाला में जम्मू के साथ-साथ इंदौर भी झुलस रहा है। दोनों जगहों पर लगे कफ्र्यू के चलते लोगों का जीना दुष्वार हो गया है।

वहीं, सियासी दल इस मुद्दे को अपने तरीके से भुनाने में जुट गए हैं। हिंसा के मद्देनजर लगाए गए कफ्र्यू से जम्मू संभाग के अधिकतर जिलों में आवश्यक वस्तुओं की भारी किल्लत पैदा हो गई है। घाटी में पीडीपी व इस्लामी कट्टरपंथियों ने भूमि हस्तांतरण किए जाने का विरोध किया था। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इस निर्णय को बरकरार रखने के लिए प्रदर्शन कर रही है।

पीडीपी पहले से ही कांग्रेस से किनारा करना चाहती थी। लेकिन इस मुद्दे को लेकर उसने कांग्रेस के लिए दिक्कत पैदा कर दी है। वहीं, इस विवाद ने भाजपा को खुल कर हिंदुओं की वकालत करने का बड़ा बहाना दे दिया है। अब यह मामला हिंदू व मुस्लिमों के बीच का नहींबल्कि हिंदू बनाम कांग्रेस का है।

Saturday, July 5, 2008

करार पर सियासत

भारत-अमेरिका परमाणु करार पर इन दिनों तकरार चरम पर है। वामदल जहां सरकार से तलाक लेने पर अड़ें हैं। वहीं, मौके की नजाकत को समझ कर समाजवादी पार्टी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात कर परमाणु डील पर सरकार को बचाने के संकेत दे दिए। इस बीच, तीसरे मोर्चे को सपा प्रमुख मुलायम सिंह का यह रुख रास नहींआया है। कहा जाता है कि मुलायम को तीसरे मोर्चे से बाहर कर दिया गया है।
सपा महासचिन अमर सिंह जो कल तक सोनिया गांधी कहते थे। अब वो भी सोनिया जी कह रहे हैं। कुल मिलाकर इस समय सपा ही सरकार की खेवनहार बनी हुई है।अब यदि वामदल सरकार से तलाक लेते हैं तो सरकार अल्पमत में रह जाएगी। फिर अल्पमत सरकार की अंतरारष्ट्रीय जगत में क्या साख होगी। यह तो समय ही बताएगा। हो सकता है कि सपा का समर्थन केवल लोकसभा चुनाव को फिलहाल टालने के लिए ही हो। जब से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री व बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने सरकार से समर्थन वापस लिया है, तभी से सपा की सरकार से नजदीकी बढ़ी है। पहले तो सपा व कांग्रेस में काफी अनबन थी।
बसपा चूंकि कांग्रेस व सपा दोनों की आंखों की किरकिरी बनी हुई है। ऐसे में ये दोनों पार्टी मिलकर यूपी की सत्ता हथियाना की भी ताक में हो सकती हैं। इसके अलावा अभी कांग्रेस व सपा इस गफलत में भी हैं कि हो सकता है कि परमाणु मुद्दा चुनावी मुद्दा बन जाए। चुनाव में इसका लाभ उठाया जा सके, पर यह तो समय ही बताएगा कि इससे किसकों कितना लाभ मिलेगा। अभी यह भी नहीं कहा जा सकता है कि करार अंजाम तक पहुंच भी पाएगा या नहीं। फिर भी करार सियासी दलों ने खूब हो-हल्ला मचा रखा है। वामदल तो काफी समय से सरकार से तलाक लेने की तैयारी में हैं। लेकिन क्या वो वाकई में सरकार से तलाक लेंगे। यह भी नहीं कहा जा सकता है।