आखिरकार कई दिनों से चल रहे सियासी ड्रामे का पटापेक्ष हो ही गया। सरकार तो जीत गई, पर लोकतंत्र हार गया। लोकतंत्र के पवित्र मंदिर को आतंकियों की गोली से इतना आघात नहीं पहुंचा था, जितना 22 जुलाई को उसके खुद के नुमाइंदों ने पहुंचा दिया है।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार ने भले ही बहुमत हासिल कर लिया हो, पर संसदीय परंपराओं पर जो कालिख पुती है उसके लिए सभी सियासी दल बराबर के जिम्मेदार हैं। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार संसद में नोटों की गड्डियों को लहराया गया। दिल्ली की गद्दी के लिए दोनों पक्षों ने सभी दांवपेच खूब खेले। इस दौरान किसी ने टिकटों का तो किसी ने नोटों का झांसा दिया। इन सब में अगर आहत हुई है तो लोकशाही।
क्या यहीं सब देखने के लिए देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया गया था। लोकतंत्र को नोटतंत्र में तबदील करने की साजिश क्यों रची गई। क्या वाकई ऐसा हुआ है या फिर कांग्रेस की बदनाम करने की साजिश है। कुछ भी हो पर जिस तरह से संसदीय गरिमा तार-तार हुई है, उससे लोकतंत्र के प्रति आस्था रखने वाले सिर्फ शर्म से सिर झुकाने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं।
Tuesday, July 22, 2008
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