Tuesday, July 29, 2008

ये आग कब बुझेगी

जम्मू जल रहा है और केंद्र सरकार खामोश बैठकर तमाशा देख रही है। आखिर केंद्र कब तक जम्मू में भड़की आग को यूं ही नजरअंदाज करता रहेगा। अब तक के हालात से यह नहीं लगता है कि बिना केंद्र के हस्तक्षेप के जम्मू में आग बुझ पाएगी।

जम्मू में भड़की आग को सिर्फ श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड की जमीन के लिए जम्मूवासियों की जंग समझना भूल है। दरअसल यह जन आंदोलन कश्मीरी नेताओं की कश्मीर केंद्रित, अलगाववादी व सांप्रदायिक सोच के खिलाफ जम्मू संभाग के उन सभी राष्ट्रवादियों का आक्रोश है, जो श्राइन बोर्ड की जमीन के बहाने फूट पड़ा है।

श्री अमरनाथ जमीन मुद्दे पर जम्मू संभाग में फैली आग को बुझाने के लिए अगर शीघ्र ही कुछ कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले दिनों में स्थिति और भी गंभीर हो सकती है। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड से भूमि वापस लिए जाने के बाद जम्मू संभाग में शुरू हुए आंदोलन का दबाने के लिए प्रशासन और पुलिस ने कुछ ऐसे कदम उठाए, जिससे लोगों की भावनाएं काफी आहत हुई हैं। प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई ने आग में घी का काम किया, जिससे आंदोलन उग्र होता जा रहा है।

जमीन वापस लिए जाने के मुद्दे पर जम्मू की जनता को भी अपने आक्रोश का प्रदर्शन करते समय संयम का परिचय देने के साथ यह सुनिश्चित करना होगा कि आंदोलन शांतिपूर्ण बना रहे।

लाशों के ढेर पर राजनीति

आतंकी धमाकों ने बेंगलूर व अहमदाबाद को तो बेगुनाहों के खून से रक्तरंजित कर ही दिया है, पर देश के कई अन्य शहरों में भी ऐसे ही धमाकों की धमकी से लोग सहमे हुए हैं।

इन धमाकों का दिल दहला देने वाला मंजर किसी पत्थर दिल इंसान को भी खून के आंसू रुला देने के लिए काफी है। लेकिन सियासी दल लाशों के ढेर पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं। केंद्र सरकार जहां संघीय जांच एजेंसी की हिमायत करने में जुट गई है, वहीं विपक्षी पोटा कानून की बहाली की हिमाकत कर रहा है।

कहा जा रहा है कि हादसे सांसदों की खरीद-फरोख्त के मामले को दबाने के लिए कराए गए हैं। जब सारा देश आतंकवाद सेपीडि़त लोगों के घावों पर मरहम लगा रहा है। तब क्या राजद को दिल्ली में बैठकर सांसदों की खरीद-फरोख्त के मुद्दे पर सरकार को घेरने की रणनीति बनाना उचित है।

ये ऐसा वक्त है, जब सभी सियासी दलों को मिल-बैठकर आतंकवाद की समस्या के समाधान का रास्ता खोजना चाहिए। मगर राजनेताओं को एक-दूसरे पर छींटाकशी से समय मिले तब ना।

Saturday, July 26, 2008

दहशत के सौदागर


बेंगलूर व अहमदाबाद के धमाकों ने फिर सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है। सरकार जहां जीत का जश्न मना रही है, वहीं इन धमाकों ने फिर जता दिया है कि आतंकी कभी भी अमन पसंद लोगों को चैन से नहीं रहने देंगे।


बेंगलूर देश की संपन्नता का प्रतीक है। ऐसे में यहां सुरक्षा तंत्र को देश की राजधानी जैसा ही सुदृढ़ किया जाना चाहिए था, लेकिन 28 दिसंबर 2005 को भारतीय विज्ञान संस्थान में आतंकी हमले से भी राज्य सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा।


मुंबई में 12 मार्च 93 को सिलसिलेवार बम विस्फोटों में 250 लोगों की मौत हुई थी और 700 घायल हुए थे। तबसे हैदराबाद, मालेगांव, फैजाबाद, वाराणसी, लखनऊ, अजमेर व जयपुर में धमाके हो चुके हैं।
जब धमाके होते हैं, उस वक्त तो सरकार हरकत में आ जाती है और विपक्षी भी खूब हो हल्ला मचाते हैं।


जब तक इन आतंकियों से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई जाती, तब तक ऐसे ही धमाके होते रहेंगे। फिर भी सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगेगी और निर्दोष लोग इन आतंकियों का निशाना बनते रहेंगे। आतंकियों का जितना दुस्साहस बढ़ रहा है, सरकार उतनी ही विवश दिख रही है। सरकार को आतंकवाद से सख्ती से निपटना होगा, तभी आम जन को अमन-चैन मिल सकेगा।

आस्था पर फिर चोट

भगवान श्रीराम की महिमा को कौन नहीं जानता है। पर केंद्र सरकार बार-बार देशवासियों की आस्था पर चोट कर रही है। कहीं यह सारा खेल द्रमुक का समर्थन बरकरार रखने के लिए ही तो नहीं खेला जा रहा है। अगर ऐसा होगा भी तो कोई बड़ी बात नहीं है। क्योंकि जब सरकार अपराधी सांसदों को जेल से बाहर निकाल सकती है, उनको खरीद सकती है तो वह कुछ भी कर सकती है।

संसद को शर्मसार कर बहुमत साबित करने के बाद केंद्र की यूपीए सरकार ने फिर भगवान श्रीराम के अस्तित्व को नकार दिया है। सुप्रीम कोर्ट में सेतु समुद्रम परियोजना पर केंद्र सरकार की ओर से पेश वकील ने यह कहकर विवाद को फिर हवा दे दी है कि रामसेतु भगवान श्रीराम ने खुद ही तोड़ दिया था।
इससे पहले भगवान श्रीराम के अस्तित्व पर सुप्रीम कोर्ट में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा दिए गए हलफनामे में यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया था कि भगवान श्रीराम के अस्तित्व के कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं। क्या यह हलफनामा हिंदू मानसिकता से खिलवाड़ नहीं था? जब इसका विरोध होने लगा तो केंद्र ने यह हलफनामा वापस ले लिया। अब फिर श्रीराम सेतु के अस्तित्व को यह कहकर नकारने का प्रयास किया गया कि भगवान राम ने सेतु खुद ही तोड़ दिया था। साथ ही, केंद्र सरकार वकील ने यह कहकर सभी को हैरत में डाल दिया कि सितंबर ख्007 में केंद्र द्वारा दाखिल हलफनामा बाहरी परिस्थितियों के कारण वापस लिया गया था। इस तरह केंद्र सरकार ने न केवल वापस लिए गए हफलनामे को सही ठहराया, बल्कि राम के अस्तित्व को फिर नकार दिया।

अब सवाल यह है कि महर्षि वाल्मीकि व कवि कालिदास को गलत मानकर कंब रामायण पर कैसे विश्र्वास किया जा सकता है, जो सर्वमान्य नहीं हैं। सरकार को लोगों की आस्था से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।

Tuesday, July 22, 2008

संसद शर्मसार, लोकतंत्र बेजार; जनता लाचार

आखिरकार कई दिनों से चल रहे सियासी ड्रामे का पटापेक्ष हो ही गया। सरकार तो जीत गई, पर लोकतंत्र हार गया। लोकतंत्र के पवित्र मंदिर को आतंकियों की गोली से इतना आघात नहीं पहुंचा था, जितना 22 जुलाई को उसके खुद के नुमाइंदों ने पहुंचा दिया है।

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार ने भले ही बहुमत हासिल कर लिया हो, पर संसदीय परंपराओं पर जो कालिख पुती है उसके लिए सभी सियासी दल बराबर के जिम्मेदार हैं। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार संसद में नोटों की गड्डियों को लहराया गया। दिल्ली की गद्दी के लिए दोनों पक्षों ने सभी दांवपेच खूब खेले। इस दौरान किसी ने टिकटों का तो किसी ने नोटों का झांसा दिया। इन सब में अगर आहत हुई है तो लोकशाही।

क्या यहीं सब देखने के लिए देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया गया था। लोकतंत्र को नोटतंत्र में तबदील करने की साजिश क्यों रची गई। क्या वाकई ऐसा हुआ है या फिर कांग्रेस की बदनाम करने की साजिश है। कुछ भी हो पर जिस तरह से संसदीय गरिमा तार-तार हुई है, उससे लोकतंत्र के प्रति आस्था रखने वाले सिर्फ शर्म से सिर झुकाने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं।

'विश्वास' पर अविश्वास

विश्वास प्रस्ताव ऐसा, जिस पर किसी को विश्वास ही नहीं है। चाहे वह सत्ता पक्ष हो या फिर विपक्ष। जो विश्वास हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं विश्वास उन्हें भी नहींहै, और न ही उन्हें जो विश्वास हासिल करने की कोशिश को नाकाम करने में लगे हैं।

जो सरकार को बचाने में जुटे हैं, भले ही वह यह दावा कर रहे हों कि मंगलवार को लोकसभा में विश्वास मत प्रस्ताव पर उन्हें जीत हासिल हो जाएगी, पर उनके मन में भी संशय है। यहीं हाल विपक्ष का भी है जो सरकार गिराने में लगा है, पर इसमें उसे सफलता मिल पाएगी इसका भी कोई भरोसा नहीं है।
विश्वास मत प्रस्ताव का नतीजा चाहे सत्ता पक्ष के हक में जाए या फिर विपक्ष के, पर आम जनता व राजनीतिक दलों में विश्वास और कमजोर होना तय है।

फिर भी अब देखना यह है कि जिन अपराधी सांसदों को जेल से बाहर निकालकर लाया गया है, और जिन सांसदों को खरीद कर लाया गया है क्या वह सरकार को बचा पाएंगे? अगर सरकार बच भी जाती है तो हितैषी मनमाना ओहदा तो लेंगे ही ना। आम जनता की दुश्वारियां तो कम होंगी नहीं।

Sunday, July 20, 2008

ये कैसा 'जनतंत्र'

देश की राजनीति ऐसी मंडी में तबदील हो गई है, जहां हर चीज की नीलामी हो रही है। सांसदों की जहां 25 से 30 करोड़ रुपये में नीलामी हो रही है, वहीं मंत्रिपद की भी बोलियां लगाई जा रही हैं। सरकार को बचाने के लिए अपराधी सांसद जेल से बाहर निकाले जा रहे हैं। ये कैसा 'जनतंत्र' है। क्या यहीं सब देखने के लिए देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया गया था?

जब सरकार को बचाने के लिए इस तरह की सौदेबाजी हो सकती है तो हो सकता है कि कल देश का ही सौदा कर दिया जाए। जब देश का प्रधानमंत्री सरकार को बचाने के लिए कोई भी ओछे हथकंडे अपना सकता है, तो दूसरों के बारे में क्या कहा जाए। जब हर चीज की बोली ही लग रही है तो अगर सरकार बच भी जाती है तो कोई बड़ी बात नहींहै। लेकिन संसद में यदि सरकार अपराधी सांसदों के बल पर बहुमत साबित भी कर लेती है तो क्या आम आदमी को न्याय मिल सकेगा।

परमाणु करार देश के हित में है या नहींये तो बाद की बात है। लेकिन जिस देश का प्रधानमंत्री ही सरकार को बचाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा बैठा हो तो उसको अपने पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है।

Sunday, July 13, 2008

निकल गई हेकड़ी

चार साल तक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार को अपने इशारों पर नचाया। अब खुद नाचने पर मजबूर हो गए वामदल।

वामदल सरकार को मुश्किल में डालने के लिए समर्थन वापसी की धमकी दे रहे थे। उनकी यह मंशा थी कि सरकार परमाणु करार पर पीछे हटे। अगर सरकार करार पर आगे बढ़ती है तो समर्थन वापस लेकर उसे मुश्किल में डाल दिया जाएगा। लेकिन उन्होंने शायद यह नहींसोचा था कि समर्थन वापस लेने के बाद उनकी हेकड़ी निकल जाएगी।

खुद को आम जनता का हितैषी बताने वाले वामदलों ने पिछले चार साल में परमाणु करार के विरोध के अलावा कोई मुद्दा नहींउठाया। क्या इस दौरान उन्हें आसमान छूती महंगाई नहीं दिखी। इस कारण देर-सबेर जब भी चुनाव होंगे तो वामदलों को उसका लाभ मिलना मुश्किल होगा। ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि पिछले चार साल में इन्होंने जनता से जुड़ा कोई भी ऐसा मुद्दा नहीं उठाया है, जिसका चुनाव में इनको लाभ मिलता।

पश्चिम बंगाल में पंचायत व नगर पालिका चुनाव ने भी यह साबित कर दिया है कि अब वहां लाल रंग की चमक फीकी पड़ती जा रही है।

Saturday, July 12, 2008

प्रतिशोध की राजनीति

राजनीति में सब जायज है ! न तो कोई किसी का दोस्त है और न ही कोई किसी का दुश्मन। जो कल तक दुश्मन थे, वे आज दोस्त हो गए और जो दोस्त थे, वे दुश्मन हो गए।

कांग्रेस किस तरह से बहुमत जुटाने के लिए ओछे हथकंडे अपना रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। जो राजनीतिक दल कल तक एक-दूसरे को जमकर कोसने से नहीं चूकते थे, आज वह एकजुट हो गए हैं। बहुमत जुटाने के लिए क्या कुछ नहीं हो रहा है। चाहे वह प्रतिशोध की राजनीति हो या फिर ब्लैकमेलिंग। विरोधियों को डराने-धमकाने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है।

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो [सीबीआई] ने आय से अधिक संपत्ति मामले में पर्याप्त सबूत होने का दावा कर चार्जशीट भी दाखिल कर दी है। ये वहीं मायावती हैं, जो कल तक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को समर्थन दे रही थीं। तब तक तो यह सरकार की काफी खास थीं, पर जब से इन्होंने संप्रग से समर्थन वापस लिया, तब से ये संप्रग की आंखों की किरकरी बन गर्ई।

समाजवादी पार्टी [सपा] का समर्थन मिलते ही सरकार ने विरोधियों [खासकर बसपा] को ठिकाने लगाने की कवायद शुरू कर दी है। क्या यहींसब होता है लोकतंत्र में। यह तो सीधे-सीधे ब्लैकमेलिंग हुई। जो समर्थन दे, उसके खिलाफ सीबीआई शांत हो जाए, जो न दे उसे फंसा दिया जाए।

विश्वासमत हासिल करने के लिए यह कवायद कहां तक उचित है। भले ही सरकार किसी तरह से संसद में बहुमत हासिल कर ले। पर जनता की नजर में तो सरकार पहले से ही हार चुकी है।

प्रधानमंत्री मनमोहन की परमाणु करार करने की जिद कहां तक ठीक है। प्रधानमंत्री जितना करार के लिए बेकरार हैं, काश! वह इतना महंगाई कम करने के लिए बेकरार होते तो शायद आम आदमी को कुछ राहत ही मिल जाती। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया।

Tuesday, July 8, 2008

ये तो होना ही था

जम्मू-कश्मीर में श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद को लेकर पीपुल्स ड्रेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) द्वारा गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेते ही यह आभास होने लगा था कि गुलाम नबी आजाद सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चलेगी।
विश्वासमत पर मतदान से पहले ही आजाद ने इस्तीफा इसलिए दे दिया, क्योंकि उन्हें पता था कि वह विश्वासमत नहीं हासिल कर पाएंगे। अब सवाल यह उठता है कि आजाद ने इस्तीफा देने में इतनी देरी क्यों की। उन्हें पीडीपी के समर्थन वापस लेते ही इस्तीफा दे देना चाहिए था। लेकिन उन्होंने तब इस्तीफा इसलिए नहीं दिया था, क्योंकि उन्हें पूर्ण विश्वास था कि वह पीडीपी को तोड़ लेंगे या फिर नेशनल कांफ्रेंस को समर्थन देने के लिए तैयार लेंगे। लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाए।
आजाद का अपने मंत्रियों सहित इस्तीफा दे देने से राज्य में राजनीतिक संकट और गहरा गया है। प्रदेश में ऐसा कोई दल नजर नहीं आ रहा है जो दूसरे दलों से गठजोड़ कर नई सरकार बनाने का दमखम रखता हो। ऐसे में राज्य में राष्ट्रपति शासन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
अब देखना यह है कि केंद्रीय नेतृत्व किस तरह से जम्मू-कश्मीर में स्थिति को सामान्य बनाए रखने के लिए कदम उठाता है। हालांकि इसके दो ही विकल्प हैं कि या तो अगली व्यवस्था तक जम्मू-कश्मीर में आजाद को कार्यकारी मुख्यमंत्री के तौर पर बने रहने दिया जाए या फिर राष्ट्रपति शासन लागू किया जाए।

Sunday, July 6, 2008

सियासी 'खेल'

जम्मू-कश्मीर में श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी जमीन वापस लेने को लेकर विरोध की आग ठंडी होने का नाम नहीं ले रही है। विरोध की इस ज्वाला में जम्मू के साथ-साथ इंदौर भी झुलस रहा है। दोनों जगहों पर लगे कफ्र्यू के चलते लोगों का जीना दुष्वार हो गया है।

वहीं, सियासी दल इस मुद्दे को अपने तरीके से भुनाने में जुट गए हैं। हिंसा के मद्देनजर लगाए गए कफ्र्यू से जम्मू संभाग के अधिकतर जिलों में आवश्यक वस्तुओं की भारी किल्लत पैदा हो गई है। घाटी में पीडीपी व इस्लामी कट्टरपंथियों ने भूमि हस्तांतरण किए जाने का विरोध किया था। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इस निर्णय को बरकरार रखने के लिए प्रदर्शन कर रही है।

पीडीपी पहले से ही कांग्रेस से किनारा करना चाहती थी। लेकिन इस मुद्दे को लेकर उसने कांग्रेस के लिए दिक्कत पैदा कर दी है। वहीं, इस विवाद ने भाजपा को खुल कर हिंदुओं की वकालत करने का बड़ा बहाना दे दिया है। अब यह मामला हिंदू व मुस्लिमों के बीच का नहींबल्कि हिंदू बनाम कांग्रेस का है।

Saturday, July 5, 2008

करार पर सियासत

भारत-अमेरिका परमाणु करार पर इन दिनों तकरार चरम पर है। वामदल जहां सरकार से तलाक लेने पर अड़ें हैं। वहीं, मौके की नजाकत को समझ कर समाजवादी पार्टी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात कर परमाणु डील पर सरकार को बचाने के संकेत दे दिए। इस बीच, तीसरे मोर्चे को सपा प्रमुख मुलायम सिंह का यह रुख रास नहींआया है। कहा जाता है कि मुलायम को तीसरे मोर्चे से बाहर कर दिया गया है।
सपा महासचिन अमर सिंह जो कल तक सोनिया गांधी कहते थे। अब वो भी सोनिया जी कह रहे हैं। कुल मिलाकर इस समय सपा ही सरकार की खेवनहार बनी हुई है।अब यदि वामदल सरकार से तलाक लेते हैं तो सरकार अल्पमत में रह जाएगी। फिर अल्पमत सरकार की अंतरारष्ट्रीय जगत में क्या साख होगी। यह तो समय ही बताएगा। हो सकता है कि सपा का समर्थन केवल लोकसभा चुनाव को फिलहाल टालने के लिए ही हो। जब से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री व बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने सरकार से समर्थन वापस लिया है, तभी से सपा की सरकार से नजदीकी बढ़ी है। पहले तो सपा व कांग्रेस में काफी अनबन थी।
बसपा चूंकि कांग्रेस व सपा दोनों की आंखों की किरकिरी बनी हुई है। ऐसे में ये दोनों पार्टी मिलकर यूपी की सत्ता हथियाना की भी ताक में हो सकती हैं। इसके अलावा अभी कांग्रेस व सपा इस गफलत में भी हैं कि हो सकता है कि परमाणु मुद्दा चुनावी मुद्दा बन जाए। चुनाव में इसका लाभ उठाया जा सके, पर यह तो समय ही बताएगा कि इससे किसकों कितना लाभ मिलेगा। अभी यह भी नहीं कहा जा सकता है कि करार अंजाम तक पहुंच भी पाएगा या नहीं। फिर भी करार सियासी दलों ने खूब हो-हल्ला मचा रखा है। वामदल तो काफी समय से सरकार से तलाक लेने की तैयारी में हैं। लेकिन क्या वो वाकई में सरकार से तलाक लेंगे। यह भी नहीं कहा जा सकता है।