भले ही काफी कुछ बदला है पर 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' की मानसिकता में शायद अभी तक बदलाव नहीं आया है।
अगर आया होता तो आज शायद देश के कुछ राजनीतिज्ञ, अफसर, जज व अन्य लोग सरकारी बंगलों को अपनी बपौती समझकर उसमें सांप की तरह कुंडली मारकर नहीं बैठते। शायद वह सरकारी बंगलों को इसलिए नहीं खाली कर रहे हैं, क्योंकि इसे वह अपनी संपत्ति समझ रहे हैं। अगर वह इन्हें खाली कर देंगे तो फिर इनकी देखभाल कौन करेगा।
इन सरकारी बंगलों को खाली कराने के लिए राज्य व केंद्र सरकार कड़ा रुख नहीं अपनाती है। क्योंकि सरकार भी तो इन मेहरबान है, अगर नहीं होती तो क्या सरकार इतनी लचर हो गई है कि वह इन बंगलों को न खाली करा सके। खाली तो करा सकती है, पर कराती नहीं है।
शायद सुप्रीम कोर्ट को भी इस बात का अहसास हो गया है, तभी तो उसने यह निराशाजनक टिप्पणी दी है कि...' पूरी सरकारी मशीनरी भ्रष्ट है'। 'भगवान भी इस देश की मदद नहीं कर सकता, वह भी सिर्फ मूक दर्शक ही बना रहेगा।'
अगर इस टिप्पणी के बाद भी राज्य व केंद्र सरकार की आंखें नहीं खुलती हैं और वह सरकारी बंगलों में काबिज लोगों को नहीं खदेड़ती है, तो फिर उससे क्या अपेक्षा की जाए। आज ये लोग सरकारी बंगलों पर काबिज हैं, कब किसी के घर व जमीन पर भी तो कब्जा कर सकते हैं। फिर क्या होगा।
Wednesday, August 6, 2008
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3 comments:
सुना था कलयुग आयेगा , मगर इतनी जल्दी ??
आप ने सच लिखा हे, जिस की लाठी उस की भेंस यह कहावत आज के समय पर सही बेठती हे,धन्यवाद एक अच्छे लेख के लिये
सही
नब्ज़ पर हाथ रखा है आपने.
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डा.चन्द्रकुमार जैन
मेरी गजल का एक शेर इस सन्दर्भ में देखें कि :-
'भगवान से भरोसा भी उठ लिया है बन्धु,
ना जाने किस भरोसे अब देश चल रहा है..'
कोर्ट आदेश को इम्प्लीमैंट कौन करे ?
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