Sunday, July 12, 2009

हादसा या लापरवाही?


अगर पिछले हादसों से सबक लिया होता तो क्या रविवार को फिर राष्ट्रीय राजधानी में सेंट्रल सेक्रेटरिएट-बरदपुर मेट्रो रेल खंड के जमरूदपुर में लेडी श्रीराम कालेज के नजदीक निर्माणाधीन मेट्रो रेल पुल के दो खंभों के बीच का हिस्‍सा गिरता। हादसे में छह मजदूर चिरनिद्रा में सो गए, जबकि कई जिंदगियां अब भी अस्‍पतालों में जीवन-मौ‍त से जूझ रही हैं।

उन्हें क्या मालूम था कि रविवार की सुबह का वह दीदार नहीं कर पाएंगे। इनका कसूर सिर्फ इतना था कि वे राष्ट्रीय राजधानी के विकास और अपनी आजीविका के लिए अरबों रुपये के मेट्रो रेल प्रोजेक्‍ट में छोटा सा योगदान दे रहे थे।

दिल्‍ली मेट्रो के दूसरे फेज के निर्माण में यह पहला हादसा नहीं है। इससे पहले मई 2009 में जोरबाग इलाके में मेट्रो की करीब 108 फीट ऊंची क्रेन एक कार पर गिर गई। हालांकि, क्रेन कार के पिछले हिस्से पर गिरी, जिसकी वजह से कार में सवार परिवार हादसे में बाल-बाल बच गया।

इससे पहले अक्‍तूबर, 2008 में शकरपुर इलाके में निर्माणाधीन मेट्रो फ्लाइओवर का हिस्‍सा गिर जाने से दो लोगों की मौत हो गई और 15 से ज्‍यादा लोग घायल हो गए। इस हादसे में एक ब्‍लूलाइन बस सहित कई वाहन भी चपेट में आए। इसके अलावा और भी कुछ हादसे हो चुके हैं।

दूसरे फेज में हादसे क्‍यों हो रहे हैं? पहले फेज की सफलता के बाद मेट्रो के काम में और बेहतरी आनी चाहिए थी, क्‍योंकि तब और अब के बीच पैसे से लेकर तकनीक और अनुभव तक हर मामले में वृद्धि ही हुई है। फिर क्‍या वजह है कि मेट्रो रेल के दूसरे फेज के निर्माण के दौरान हादसे दर हादसे हो रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं पहले फेज की सफलता ने दिल्‍ली मेट्रो रेल कारपोरेशन में अतिआत्‍मविश्‍वास भर दिया है, जिसकी वजह से कहीं न कहीं लापरवाही का पुट आ गया है?

हादसें के बाद भले ही मेट्रो के प्रबंध निदेशक ई. श्रीधरन ने दिल्ली सरकार को इस्तीफा भेज दिया हो। पर क्या उनका इस्तीफा मंजूर होगा, यह भी जरूरी नहीं है? हादसे में जिन लोगों की जान पर बन आई, क्या वे फिर से जिंदा हो जाएंगे? अब कोई कहेगा कि हादसा निंदनीय है, कोई कहेगा अफसोसजनक है तो कोई कहेगा शर्मनाक है। पर इससे क्या हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों के जख्म भर जाएंगे? अब इसे हादसा कहा जाए या लापरवाही?

3 comments:

राज भाटिय़ा said...

यह सब चलता है, हम भारतीया है, हमे सहना आता है भाई, दो चार दिन मै जब इतने बडे बडे मामले हम भुल गये यह तो मामूली है,

स्वप्न मञ्जूषा said...

बहुत ही अच्छी जानकारी दी आपने, लेकिन मजदूरों की मौत से किसे फर्क पड़ रहा है हाँ कोई मंत्री दबता तो बात बनती, ये पूल भी तो देख कर ही गिरते हैं कभी सुना है किसी मंत्री को पूल के नीचे दबते, बिल्डिंग की छत गिर गयी और मंत्री महोदय स्वर्ग सिधार गए, फिर भी क्षोभ अवश्य होता है यह सब देख कर, ईश्वर उन मजदूरों के परिवार को इस दुःख और हानि को सहने की क्षमता दे और दिवंगत आत्माओं को शांति....
एक बात और जैसा की भाटिया साहब ने कहा है की हम भारतीयों को भूलने की बिमारी है, पार्लियामेन्ट में हमला हम भूल गए, मुंबई में आतंकवादियों का कहर, हम भूल गए, सिर्फ भूले ही नहीं 'कसाब' को बाकायदा मेहमान की तरह रखा जा रहा है और मेहमान नवाजी की जा रही है, तभी तो पडोसी हमें 'अहमक' कहते हैं....

Udan Tashtari said...

दुखद कह कर दिल हल्का कर लेते हैं और तो क्या हैं कहने को!!