जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरों के घर पत्थर नहीं फेंका करते...मगर उन्हें कौन समझाए? क्या वह नहीं जानते कि हमाम में सभी नंगे हैं? जब खुद का दामन ही पाक-साफ न हो तो दूसरे को कैसे खराब कहा जा सकता है। क्या राजनीति अब सिर्फ बदले की भावना तक ही सीमित होकर रह गई है?
अगर ऐसा न होता तो क्या पीडीपी नेता मुजफ्फर बेग जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पर सेक्स स्कैंडल में शामिल होने के आरोप लगाते। तब शायद बेग ने यह नहीं सोचा होगा कि मुझे भी ऐसे सवालों से गुजरना होगा। मगर नेशनल कांफ्रेंस ने बेग से भी सवाल किए। नेकां के नजीर अहमद गुराजी ने विधानसभा स्पीकर को ऐसे सवाल सौंपे, जिन पर स्पीकर ने बेग से जवाब मांगा। इस पर बेग खफा हो गए, और इन सवालों के पेपर ही फाड़ कर फेंक दिए।
सवाल नंबर एक
क्या यह सही है कि दिल्ली में आपके न्यू फ्रेंड्स कालोनी वाले घर में देश के जानेमाने पत्रकार की विधवा दो साल तक रही?
सवाल नंबर दो
क्या यह सही नहीं है कि आपके और उस महिला के बीच संबंधों में तब दरार आने लगी, जब आपकी नजर उसकी बेटी पर भी पड़ने लगी?
सवाल नंबर तीन
क्या यह सही है कि आप राजबाग के जंगलों के पट्टेदार की विधवा से मिलने दिल्ली में बाराखंभा रोड स्थित सूरी अपार्टमेंट जाते थे?
सवाल नंबर चार
क्या यह सही है कि जब आप वकालत करते थे तब एक पूर्व चीफ जस्टिस की बेटी आपके साथ बारामूला में दो माह रही थी?
सवाल नंबर पांच
क्या आपके दिल्ली के एक सिनेमाहल मालिक की बहन से अवैध संबंध नहीं थे? क्या आप दिल्ली में उनके दरियागंज स्थिति निवास के थर्ड फ्लोर पर उनके साथ नहीं ठहरे थे?
सवाल नंबर छह
क्या यह सही नहीं है कि आपने अपनी भतीजी को छह साल तक अपने संग रखा और उससे संबंध बनाए?
भले ही सवाल सुनने और पढ़ने वाले को शर्म आ जाए...मगर इन्हें तो आती नहीं है? अगर आती होती तो दूसरों के दामन पर क्यों कीचड़ उछालते? इस मामले में उमर ने तो तुरंत इस्तीफा दे दिया था। भले ही जांच में वे बाद में निर्दोष पाए और और उनका इस्तीफा नामंजूर कर दिया गया। अब बेग को भी चाहिए कि या तो वह उमर पर लगाए गए आरोप साबित करें, अन्यथा खुद भी इस्तीफा दें।
Friday, July 31, 2009
Thursday, July 16, 2009
ये कैसी राजनीति?
उत्तर प्रदेश की राजनीति के उच्च पदों पर आसीन दो महिला राजनेताओं के बीच छिड़ी जंग ने संसद तक को ठप कर दिया। एक की (प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी) बेलगाम जबान, और दूसरी (बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख व प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती) का सत्ता का अहंकार। और मचा हुआ है बवाल। यूपी, जो कभी राजनीतिक शालीनता का पर्याय हुआ करता था, पर आज महिला राजनेताओं का यह बर्ताव देख कर स्तब्ध है।
मायावती तो मायावती हैं, लेकिन रीता बहुगुणा जोशी भी शायद अपने पिता स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा के आदर्श भूल चुकी हैं। अगर ऐसा न होता तो क्या मुरादाबाद में बलात्कार पीड़ित को प्रदेश सरकार द्वारा दिए जा रहे मुआवजे के परिपेक्ष्य में रीता यह कहती कि प्रदेश में एक नवविवाहिता का रेप हुआ तो माया सरकार ने 25 हजार रुपये मुआवजा दिया, एक अन्य युवती जिसकी बलात्कार के बाद मौत हो गई, उसे 75 हजार रुपये मुआवजा दिया गया। उन्होंने लोगों से कहा कि ऐसा मुआवजा मायावती के मुंह पर मारते हुए कहो कि हो जाए तेरा (मायावती का) बलात्कार, हम देंगे एक करोड़।
मायावती भी दूध की धुली नहीं हैं, उन्हाने भी 2007 में यूपी के एक मदरसे में दो छात्राओं से बलात्कार के मामले में तत्काल मुख्यमंत्री मुलायम सिंह का नाम लेते हुए कहा था कि उनकी कोई बेटी नहीं है, लेकिन अगर उनके किसी रिश्ते की बेटी-बहू से रेप करा दिया जाए और उन्हें मुस्लिम समाज के लोग दो-दो लाख की बजाए चार-चार लाख रुपये का मुआवजा दें, तो उन्हें कैसा लगेगा। मायावती तब एक मदरसे में दो छात्राओं से बलात्कार के बाद वहां गई थीं। उन्होंने यह बयान उसी मदरसे में दिया था।
दुखद तो यह है कि इस मामले में बस महिला ही महिला है। मुख्यमंत्री महिला, पीडि़ता महिला, मृतका महिला और बयान देने वाली नेता भी महिला। यानी महिला बनाम महिला। किसने किया बलात्कार? कौन है असली दोषी? किसे है फुर्सत इस पर बात करने की? हालांकि रीता के बयान पर मचा बवाल इतनी जल्दी थमता नजर नहीं आता है। और हो सकता है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद से भी रीता की छुट्टी हो जाए! पर इस तरह की अमर्यादित राजनीति कब तक होती रहेगी औऱ इससे क्या हासिल होगा?
Sunday, July 12, 2009
हादसा या लापरवाही?
अगर पिछले हादसों से सबक लिया होता तो क्या रविवार को फिर राष्ट्रीय राजधानी में सेंट्रल सेक्रेटरिएट-बरदपुर मेट्रो रेल खंड के जमरूदपुर में लेडी श्रीराम कालेज के नजदीक निर्माणाधीन मेट्रो रेल पुल के दो खंभों के बीच का हिस्सा गिरता। हादसे में छह मजदूर चिरनिद्रा में सो गए, जबकि कई जिंदगियां अब भी अस्पतालों में जीवन-मौत से जूझ रही हैं।
उन्हें क्या मालूम था कि रविवार की सुबह का वह दीदार नहीं कर पाएंगे। इनका कसूर सिर्फ इतना था कि वे राष्ट्रीय राजधानी के विकास और अपनी आजीविका के लिए अरबों रुपये के मेट्रो रेल प्रोजेक्ट में छोटा सा योगदान दे रहे थे।
दिल्ली मेट्रो के दूसरे फेज के निर्माण में यह पहला हादसा नहीं है। इससे पहले मई 2009 में जोरबाग इलाके में मेट्रो की करीब 108 फीट ऊंची क्रेन एक कार पर गिर गई। हालांकि, क्रेन कार के पिछले हिस्से पर गिरी, जिसकी वजह से कार में सवार परिवार हादसे में बाल-बाल बच गया।
इससे पहले अक्तूबर, 2008 में शकरपुर इलाके में निर्माणाधीन मेट्रो फ्लाइओवर का हिस्सा गिर जाने से दो लोगों की मौत हो गई और 15 से ज्यादा लोग घायल हो गए। इस हादसे में एक ब्लूलाइन बस सहित कई वाहन भी चपेट में आए। इसके अलावा और भी कुछ हादसे हो चुके हैं।
दूसरे फेज में हादसे क्यों हो रहे हैं? पहले फेज की सफलता के बाद मेट्रो के काम में और बेहतरी आनी चाहिए थी, क्योंकि तब और अब के बीच पैसे से लेकर तकनीक और अनुभव तक हर मामले में वृद्धि ही हुई है। फिर क्या वजह है कि मेट्रो रेल के दूसरे फेज के निर्माण के दौरान हादसे दर हादसे हो रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं पहले फेज की सफलता ने दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन में अतिआत्मविश्वास भर दिया है, जिसकी वजह से कहीं न कहीं लापरवाही का पुट आ गया है?
हादसें के बाद भले ही मेट्रो के प्रबंध निदेशक ई. श्रीधरन ने दिल्ली सरकार को इस्तीफा भेज दिया हो। पर क्या उनका इस्तीफा मंजूर होगा, यह भी जरूरी नहीं है? हादसे में जिन लोगों की जान पर बन आई, क्या वे फिर से जिंदा हो जाएंगे? अब कोई कहेगा कि हादसा निंदनीय है, कोई कहेगा अफसोसजनक है तो कोई कहेगा शर्मनाक है। पर इससे क्या हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों के जख्म भर जाएंगे? अब इसे हादसा कहा जाए या लापरवाही?
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