Sunday, November 30, 2008

ये तो होना ही था

मंुबई में आतंकी हमलों के बाद अगर केंद्र सरकार जबर्दस्त दबाव में आई न आती तो क्या गृहमंत्री शिवराज पाटिल पद छोड़ते? जब-जब विस्फोट हुए, तब-तब उन्हें हटाने की मांग की गई। मगर केंद्रीय नेतृत्व ने हर बार क्यों अनसुनी? जब पाटिल बहुत पहले ही अक्षम साबित हो चुके थे, तो उन्हें अब तक क्यों ढोया जाता रहा?

चौतरफा विरोध के बावजूद उन्हें हटाने की जरूरत क्यों नहीं समझी गई? और अब क्या सिर्फ पाटिल के स्थान पर पी. चिदंबरम को गृहमंत्री की कुर्सी पर बिठा देने से समस्या का समाधान हो जाएगा? आंतरिक सुरक्षा क्यों नहीं अभेद की जाती? कब जाएगी सरकार?ये तो होना ही था

Wednesday, November 26, 2008

क्या हुआ तेरा वादा?

चुनावी मौसम में वैसे तो नेता जी आते हैं, वादे करते हैं और चले जाते हैं। भले ही वो वादे पूरे हो या ना हों पर कोई इनसे यह नहीं पूछता है कि पिछली बार इन्होंने जो वादे किए थे, उनमें से कितने पूरे हुए। और अगर कोई पूछने की हिम्मत करता है तो उसे पुलिस हिरासत में ले लेती है। क्या ये उचित है?

जम्मू के सतवारी ब्लाक के पनोत्रेचक गांव में नेता जी ने वादों की झड़ी लगाई ही थी कि ये करूंगा, वो करूंगा। इतने में एक वोटर से नहीं रहा गया। और वह बोल पड़ा आपने पिछली बार भी कुछ ऐसे ही वादे किए थे, उनका क्या हुआ?

भरी सभा में उसने नेताजी से जवाब मांगने की हिम्मत की, और बाकी सब मूक दर्शक बने रहें। शायद इसीलिए उसकी आवाज दबा दी गई। जब तक सच के खिलाफ लोग एकजुट नहीं होंगे, तब तक ऐसे ही आवाज दबा दी जाती रहेगी। अगर दूसरे लोग भी आवाज बुलंद करते तो उनका क्या बिगड़ जाता?

Sunday, November 23, 2008

शिबू भी राज की राह पर !

झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन भी लग रहा है कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे की राह पर चलने की तैयारी कर रहे हैं !
तभी तो विधानसभा के अष्टम स्थापना दिवस पर वह कहते हैं कि बिहारी यहां रह रहे हैं और रहेंगे, पर हमें आदिवासियों मूलवासियों का भी ख्याल रखना होगा।
रांची में अस्सी फीसदी आदिवासी भूमि पर कब्जा हो चुका है। जमीन के असली मालिक रिक्शा चला रहे हैं। जमीन पर इमारतें खड़ी कर ली गई हैं। ऐसा कैसे चलेगा? तब तो झारखंड में महाराष्ट्र का हाल होगा।
तो कभी यह कह रहे हैं कि झारखंड में रहने वालों को यहां के हित के बारे में सोचना होगा। यह तो हो सकता है पर उनका यह कहना कि झारखंड में जन्मा हर बच्चा झारखंडी है। क्या ये मुनासिब है?
शिबू यह क्यों नहीं बताते हैं कि बरसों-बरस से गुरबत की जिंदगी जी रहे आदिवासियों की स्थिति के लिए कौन दोषी है? आदिवासी भूमि पर कब्जा हुआ तो तत्काल क्यों नहीं कार्रवाई हुई? क्यों अट्टालिकाएं बनने का इंतजार होता रहा?
आज शिबू ऐसा कह रहे हैं, कल किसी दूसरे प्रदेश का मुख्यमंत्री कहेगा..फिर कोई और कहेगा.. क्या यह उचित है?
शिबू ही नहीं, अभी कुछ दिन पहले पंजाब में भी एक सियासी दल ने बाहरी मजदूरों को वहां से भगाने की मुहिम शुरू करने का ऐलान किया था, पर उसके मंसूबे पूरे नहीं हो पाए थे।
हरियाणा में कुछ लोगों ने मराठियों को प्रदेश छोड़ने की चेतावनी दी थी। पर प्रशासन की सख्ती के चलते उनकी एक न चली थी। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?
जब भारतीय संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि कोई भी व्यक्ति कहींभी रह सकता है, काम कर सकता है तो फिर कुछ ओछी मानसिकता के लोगों ये क्यों नहीं भा रहा है। आखिर वे क्या चाहते हैं?
अगर केंद्र सरकार राज से सख्ती से निपटती तो शायद आज ये नौबत न आती। अब केंद्र की लापरवाही का खामियाजा अगर भोली-भाली जनता भुगतना पड़े तो क्या उचित है?

Saturday, November 22, 2008

...पर हकीकत क्या है?

आतंकी आते हैं और कहर बरपा कर चले जाते हैं। चाहे वह राष्ट्रीय राजधानी हो या कहीं और, हर जगह वह अपने खौफनाक इरादों को अंजाम देते हैं। फिर भी इनसे कड़ाई से निपटने के बजाए हमारे नेता एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं। इससे भले ही जनता को बरगलाकर वोट हासिल किए जा सकें, पर आतंकी घटनाओं पर कैसे काबू पाएंगे जनाब?

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का कहना है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के कार्यकाल में आतंकी घटनाओं में इजाफा हुआ। वहीं, केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल का कहना है कि संप्रग सरकार के साढ़े चार वर्ष के कार्यकाल के दौरान पहले की अपेक्षा कम आतंकी हमले हुए। पर हकीकत क्या है?

पाटिल कहते हैं कि, अगर कोई आतंकी घटना होती है और उसमें एक भी व्यक्ति हताहत होता है तो हमे उसे गंभीरता से लेना चाहिए और सजग हो जाना चाहिए।' पर जब आतंकी दिल्ली दहला रहे थे, उस वक्त ये जनाब कितने गंभीर और सजग थे। उधर लोग दर्द से तड़प रहे थे, इधर ये कपड़े बदल रहे थे। क्या यहीं इनकी गंभीरता है, और यहीं सजगता?

भाजपा का कहना है कि देश में आतंकवाद से निपटने के लिए कोई कानून नहीं है, जबकि पाटिल का कहना है कि आतंकवाद के खिलाफ कानून बनाए हैं, जिनसे आतंकवाद को रोकने में मदद मिलेगी। फिर आतंकी घटनाएं रुक क्यों नहीं रही हैं?

Friday, November 21, 2008

वादे हैं, वादों का क्या...

चुनावी मौसम में यूं तो सभी राजनीतिक दल चुनाव घोषणापत्र जारी करते हैं, और इसमें ऐसे-ऐसे वादे करते हैं जो शायद ही कभी पूरे हों। कहते हैं, हमारी सरकार आई तो ये कर देंगे..वो कर देंगे..लेकिन ये क्या कर देंगे..यह सभी जानते हैं।

क्योंकि ये सियासी दल जानते हैं कि बिना घोषणाओं के तो कुछ होगा नहीं। इसलिए घोषणाएं करने में क्या जाता है। कोई भी सियासी दल सत्ता में आने के बाद इन चुनाव घोषणापत्रों को पढ़ने की जहमत नहीं उठाता है। न ही जनता उनसे पूछने की हिम्मत जुटा पाती है कि चुनाव घोषणापत्र में तुमने जो वादे किए थे, उनका क्या हुआ।

जब तक कोई सियासी दल सत्तासीन रहता है, तब वो यह नहीं कहता कि हम ये कर देंगे..वो कर देंगे..पर जैसे ही वह सत्ताच्युत होता है तो कहने लगता है कि मेरी सरकार बनी तो ये करूंगा..वो करूंगा..

Wednesday, November 19, 2008

राजनीति की खातिर

महाराष्ट्र में नब्बे फीसदी जॉब स्थानीय लोगों (मराठियों) के पास हैं। यह कोई और नहीं,बल्कि महाराष्ट्र सरकार के आंकड़े बताते हैं।

फिर भी यह कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र में बाहरी लोग स्थानीय लोगों (मराठियों) से जॉब छीन रहे हैं। और इस पर पिछले कुछ समय से राजनीति खूब गरमाई।

कइयों की जान गई, कई जख्मी हुए तो कुछ महाराष्ट्र छोड़ने पर मजबूर किए गए। आखिर क्यों? क्या ये सब राजनीति चमकाने के लिए नहीं किया गया?

Tuesday, November 11, 2008

असली भिखारी या नकली भिखारी

चुनावी बिगुल बजते ही नेताओं ने वादों की झड़ी लगानी शुरू कर दी है। हम जीतने के बाद ये करेंगे..वो करेंगे..मगर ये क्या करेंगे..वो सभी जानते हैं।

इंदौर के एक विधानसभा क्षेत्र क्रमांक चार से एक भिखारी समाधान नाइक ने पर्चा दाखिल करके नेताओं को नकली और खुद को असली भिखारी बताते हुए जनता से वोट मांगा है।

नाइक का दावा है कि अगर वह विधायक बन गए तो गरीबों की हर समस्या का समाधान करेंगे, मगर भीख मांगना नहीं छोड़ेंगे। 58 वर्षीय नाइक को कुष्ठ रोग है। नाइक ट्राइसाइकिल पर घूम कर भीख मांग कर अपनी जिंदगी चला रहे हैं। उनकी इच्छा गरीबी को खत्म करने की है। उन्होंने भीख मांग-मांग कर धन इकट्ठा करके पर्चा दाखिल किया है।

नाइक का नारा है कि 'नकली भिखारी को छोड़ो और असली भिखारी को चुनो।' नाइक कहते हैं, नेता भी भिखारी हैं, वे चुनाव से पहले लोगों से नोट मांगते हैं और चुनाव में वोट। विधायक बन जाने पर वे रिश्र्वत की भीख लेने से पीछे नहीं रहते हैं। भिखारी खुलकर भीख मांगता है और वही असली भिखारी है।

नेता तो नकली भिखारी है, जब जनता को भिखारी ही चुनना है तो वह असली को चुने। नाइक ने ट्राइसाइकिल पर नारे भी लिख रखे हैं और आम लोगों से भीख के साथ वोट भी मांग रहे हैं। उन्हें इस बात का भरोसा है कि मतदाता उनकी बात सुनेंगे और वोट देने में भी पीछे नहीं रहेंगे।

नाइक ने जो कहा, क्या वह हकीकत नहीं है? फिर भी क्या कोई नाइक को गंभीरता से लेगा? चूंकि लोकतंत्र में हर किसी को अपनी बात कहने का अधिकार है, अगर नाइक अपनी बात कह रहे हैं तो इसमें बुरा क्या है? अब देखिए जनता किसे जिताती है असली भिखारी या नकली भिखारी को..फिर भी ये तो भिखारी हैं..भिखारियों का क्या..

Wednesday, November 5, 2008

आंसू नहीं थमते

स्वार्थ की राजनीति न होती
तो सरकारें निकम्मी न होतीं
न ही उस छुट भइये की पौ बारह होती
न मुंबई में उसकी बपौती होती
न ही उत्तर भारतीयों की हत्या होती
न ही वे विधवा होतीं
वे वोट के खातिर क्या नहीं करते
इनकी आंखों में आंसू नहीं थमते