क्षेत्रवाद की राजनीति कर राज ठाकरे ने भले ही महाराष्ट्र की राजनीति में जगह बना ली हो, पर राष्ट्रीय राजनीति में अपना भविष्य शून्य कर लिया है। शायद उन्हें इसका आभास नहीं है अगर होता तो वह प्रेसवार्ता में यह न कहते कि सरकार बदलेगी। मेरा भी वक्त आएगा तब क्या करोगे।
राज का यह कहना तो ठीक है कि सरकार बदलेगी। पर जो वह अपना वक्त आने की बाट जोह रहे हैं, शायद उनका यह सपना हकीकत में न बदले। क्योंकि लोग अब इतने बेवकूफ नहीं हैं। वे एक क्षेत्रवादी को ज्यादा उठता हुआ देखना नहीं पसंद करेंगे। वे कुएं के मेढ़क को कुएं में ही रहना पसंद करेंगे।
भले ही समय के साथ बडे़ से बड़ा घाव भर जाता हो, पर जो घाव राज ने राहुल और धर्मदेव के परिजनों को दिए हैं वो क्या कभी भर सकेंगे?
दरअसल, हमारी सरकारें इतनी पंगु न होती तो क्या राज की अकड़ अभी तक बची होती?
चाहे कांग्रेस हो या भाजपा दोनों को अपने स्वार्थ दिखते हैं। ये दोनों दल इस मामले में इसलिए नहींपड़ते हैं, क्योंकि उन्हें अपना वोट बैंक कम होने का भय सता रहा है।
हां, यदि राज समय के साथ-साथ खुद को भी बदलें। यानी क्षेत्रवाद से हटकर राष्ट्रहित की बात सोचें तो शायद उनकी मुराद पूरी हो जाए!
Friday, October 31, 2008
Sunday, October 26, 2008
कैसे मनाएं दीवाली?
भले ही वे दूसरे का पेट भरते हों, पर खुद अब भी भूखे पेट हैं। दिन-रात कड़ी मेहनत के बाद भी वे अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पा रहे हैं। ऐसे में वे अपने परिवार की दूसरी जरूरतें कैसी पूरी करते होंगे। उन पर सभी कहर ढाते हैं। कभी बेमौसमी बारिश उन्हें खून के आंसू रुलाती है। कभी सूखा तो कभी कोई और आपदा।
भले ही हरेक पार्टी का नेता उनके हितैषी होने का दावा करता हो, पर उनकी गाढ़ी कमाई यूं ही उड़ाने से गुरेज नहींकिया जाता है। किसानों को न तो उन्हें सूदखोरों के चंगुल से मुक्ति मिल रही है और न ही बैंकों से कर्ज लेने के एवज में कमीशन देने से। यहीं कारण है कि वह कर्ज के दलदल में फंस कर रह गए हैं।
उनकी जरूरतें भले ही बढ़ रही हों, पर आमदनी घट रही है। हर ओर से निराश होकर वे मौत को गले लगा रहे हैं। फिर भी सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है।
महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में छह किसानों ने इसलिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि कीड़े लगने के कारण कपास, सोयाबीन और धान की फसल को नुकसान पहुंचने से वे आहत थे। निजी व्यापारी भी उन्हें कपास की काफी कम कीमत दे रहे थे, उससे भी किसान हताश हैं। ऐसे में वे किस तरह दीवाली मनाते? ये किसान वर्धा, चंद्रपुर, अकोला, भंडारा, यवतमाल और अमरावती जिलों के बताए जाते हैं। इस साल अब तक यहां आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 626 हो गई है।
इन किसानों के परिजनों पर क्या गुजर रही होगी? और वे कैसे मनाएं दीवाली। फिर भी न तो राज्य सरकार इस ओर ध्यान दे रही है और न ही केंद्र सरकार। सरकार कोई ऐसे ठोस कदम क्यों नहीं उठाती, ताकि अन्नदाता आत्महत्या करने के लिए मजबूर न हों या किसान यूं ही आत्महत्या करते रहेंगे और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेगी?
भले ही हरेक पार्टी का नेता उनके हितैषी होने का दावा करता हो, पर उनकी गाढ़ी कमाई यूं ही उड़ाने से गुरेज नहींकिया जाता है। किसानों को न तो उन्हें सूदखोरों के चंगुल से मुक्ति मिल रही है और न ही बैंकों से कर्ज लेने के एवज में कमीशन देने से। यहीं कारण है कि वह कर्ज के दलदल में फंस कर रह गए हैं।
उनकी जरूरतें भले ही बढ़ रही हों, पर आमदनी घट रही है। हर ओर से निराश होकर वे मौत को गले लगा रहे हैं। फिर भी सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है।
महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में छह किसानों ने इसलिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि कीड़े लगने के कारण कपास, सोयाबीन और धान की फसल को नुकसान पहुंचने से वे आहत थे। निजी व्यापारी भी उन्हें कपास की काफी कम कीमत दे रहे थे, उससे भी किसान हताश हैं। ऐसे में वे किस तरह दीवाली मनाते? ये किसान वर्धा, चंद्रपुर, अकोला, भंडारा, यवतमाल और अमरावती जिलों के बताए जाते हैं। इस साल अब तक यहां आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 626 हो गई है।
इन किसानों के परिजनों पर क्या गुजर रही होगी? और वे कैसे मनाएं दीवाली। फिर भी न तो राज्य सरकार इस ओर ध्यान दे रही है और न ही केंद्र सरकार। सरकार कोई ऐसे ठोस कदम क्यों नहीं उठाती, ताकि अन्नदाता आत्महत्या करने के लिए मजबूर न हों या किसान यूं ही आत्महत्या करते रहेंगे और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेगी?
Friday, October 24, 2008
ये हैं अवाम के हितैषी
जिस तरह से हाथी के दांत दिखाने के और, और खाने के और होते हैं। ठीक उसी तरह हैं राजनेता। ये कहते कुछ हैं और करते कुछ और। राजनेताओं ने देश की क्या हालत कर दी है, यह किसी से छिपा नहीं है। चाहे वह छोटा नेता हो या बड़ा। मंत्री हो या केंद्रीय मंत्री। सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। ये जनता की खून-पसीने की कमाई उड़ाने से भी गुरेज नहीं करते हैं।
गृह मंत्री शिवराज पाटिल को ही ले लो। इन्होंने दिल्ली में महज 15 किलोमीटर जाने के लिए एमआई-17 हेलीकाप्टर का इस्तेमाल किया। इस हेलीकाप्टर के एक घंटे की उड़ान पर औसतन 2.66 लाख रुपये खर्च होते हैं। पाटिल ये सफर चंद रुपयों में पूरा कर सकते थे, फिर भी इन्होंने जनता की गाढ़ी कमाई हवा में उड़ा दी। तर्क दिया गया कि भारी ट्रैफिक से बचने और वक्त बचाने के लिए हेलीकाप्टर का इस्तेमाल किया गया। वक्त होता भी कैसे आंतरिक सुरक्षा का दारोमदार जो हैं इनके कंधों पर।
राज ठाकरे भी कहते कुछ और करते कुछ और ही हैं। यूं तो ये मराठी के हितैषी और उत्तर भारतीयों को खदेड़ने के लिए जाने जाते हैं। पर हकीकत कुछ और ही है। ये दूसरों को नसीहत देते हैं कि मुंबई में रहना है तो मराठी सीखों। और खुद घर में अंग्रेजी में बात करते हैं।
इन्होंने अपने कुत्तों का नाम अंग्रेजी में रखा है और इसी नाम से इन्हें बुलाते भी है। खुद इनका ही बेटा मराठी के बजाए विदेशी भाषा पढ़ रहा है। जिन उत्तर भारतीयों को ये आए दिन मुंबई से खदेड़ते हैं, मुसीबत में वहीं हिंदी भाषी इनके काम आते हैं। इनको जमानत हिंदी भाषी ने ही दिलाई है।
ये जो भी नौटंकी कर रह हैं, वह सिर्फ वोट बढ़ाने के लिए। भले ही ये मराठियों का हितैषी होने का दम भरते हो पर हकीकत कुछ और ही है।
जब इस तरह के नेता अवाम के हितैषी होंगे तो क्या होगा इस देश का..?
गृह मंत्री शिवराज पाटिल को ही ले लो। इन्होंने दिल्ली में महज 15 किलोमीटर जाने के लिए एमआई-17 हेलीकाप्टर का इस्तेमाल किया। इस हेलीकाप्टर के एक घंटे की उड़ान पर औसतन 2.66 लाख रुपये खर्च होते हैं। पाटिल ये सफर चंद रुपयों में पूरा कर सकते थे, फिर भी इन्होंने जनता की गाढ़ी कमाई हवा में उड़ा दी। तर्क दिया गया कि भारी ट्रैफिक से बचने और वक्त बचाने के लिए हेलीकाप्टर का इस्तेमाल किया गया। वक्त होता भी कैसे आंतरिक सुरक्षा का दारोमदार जो हैं इनके कंधों पर।
राज ठाकरे भी कहते कुछ और करते कुछ और ही हैं। यूं तो ये मराठी के हितैषी और उत्तर भारतीयों को खदेड़ने के लिए जाने जाते हैं। पर हकीकत कुछ और ही है। ये दूसरों को नसीहत देते हैं कि मुंबई में रहना है तो मराठी सीखों। और खुद घर में अंग्रेजी में बात करते हैं।
इन्होंने अपने कुत्तों का नाम अंग्रेजी में रखा है और इसी नाम से इन्हें बुलाते भी है। खुद इनका ही बेटा मराठी के बजाए विदेशी भाषा पढ़ रहा है। जिन उत्तर भारतीयों को ये आए दिन मुंबई से खदेड़ते हैं, मुसीबत में वहीं हिंदी भाषी इनके काम आते हैं। इनको जमानत हिंदी भाषी ने ही दिलाई है।
ये जो भी नौटंकी कर रह हैं, वह सिर्फ वोट बढ़ाने के लिए। भले ही ये मराठियों का हितैषी होने का दम भरते हो पर हकीकत कुछ और ही है।
जब इस तरह के नेता अवाम के हितैषी होंगे तो क्या होगा इस देश का..?
Tuesday, October 21, 2008
देर से क्यों जागी सरकार?
केंद्र सरकार को जो कदम बहुत पहले उठा लेना चाहिए था, उसे उठाने में इतनी देरी क्यों की? जब जम्मू जल रहा था, तब भी केंद्र काफी समय तक हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा और अब मुंबई में उत्तर भारतीयों पर राज ठाकरे के समर्थक जो कहर बरपा रहे हैं, क्या वह किसी से छिपा है? फिर भी केंद्रीय सत्ता बेखबर दिखी।
चौतरफा निंदा और विरोध के चलते अब भले ही सरकार जगी और राज की गिरफ्तारी हुई हो, पर गिरफ्तारी क्या किसी नौटंकी से कम है? सब कुछ सुनियोजित हो रहा है।
दरअसल, सरकार एक ओर तो लोगों को यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि राज को गिरफ्तार कर लिया गया है। दूसरी ओर, यह कोशिश चल रही है कि एक ही बार में राज पर जितने भी केस दर्ज हैं, उन सब का वारा-न्यारा हो जाए। कौन बार-बार की गिरफ्तारी का झंझट करेगा।
गृह मंत्री शिवराज पाटिल अब भले ही यह कर रहे हों कि हालात न सुधरे तो महाराष्ट्र में केंद्र दखल देगा। अभी तक केंद्र ने दखल क्यों नहीं दिया? क्या अभी तक उन्हें महाराष्ट्र में संवैधानिक नियमों की धज्जियां उड़ती नहीं दिख रही थीं?
केंद्रीय मंत्रियों लालू यादव, रामविलास पासवान ने राज की गुंडई पर भले ही प्रतिक्रिया व्यक्त की हो, लेकिन पाटिल मौन रहे? जबकि महाराष्ट्र उनका गृहराज्य है। और न ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज की गुंडागर्दी पर कुछ बोलने की जरूरत समझी। क्या यह हैरत की बात नहीं?
अब शिवसेना भी राज की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के पद चिन्हों पर चलने को आतुर है। उसने भी संसद में धमकी दी कि जल्द ही इससे भी बड़ा आंदोलन शुरू हो सकता है। कल कोई और दल भी तो इसी तरह की धमकी दे सकता है? फिर क्या करेगी सरकार?
अगर समय रहते प्रांतवाद का विद्वैष फैला रहे राज पर अंकुश लगाया गया होता तो क्या कोई भी सियासी दल संसद में इस तरह की धमकी देने की हिम्मत जुटा पाता?
चौतरफा निंदा और विरोध के चलते अब भले ही सरकार जगी और राज की गिरफ्तारी हुई हो, पर गिरफ्तारी क्या किसी नौटंकी से कम है? सब कुछ सुनियोजित हो रहा है।
दरअसल, सरकार एक ओर तो लोगों को यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि राज को गिरफ्तार कर लिया गया है। दूसरी ओर, यह कोशिश चल रही है कि एक ही बार में राज पर जितने भी केस दर्ज हैं, उन सब का वारा-न्यारा हो जाए। कौन बार-बार की गिरफ्तारी का झंझट करेगा।
गृह मंत्री शिवराज पाटिल अब भले ही यह कर रहे हों कि हालात न सुधरे तो महाराष्ट्र में केंद्र दखल देगा। अभी तक केंद्र ने दखल क्यों नहीं दिया? क्या अभी तक उन्हें महाराष्ट्र में संवैधानिक नियमों की धज्जियां उड़ती नहीं दिख रही थीं?
केंद्रीय मंत्रियों लालू यादव, रामविलास पासवान ने राज की गुंडई पर भले ही प्रतिक्रिया व्यक्त की हो, लेकिन पाटिल मौन रहे? जबकि महाराष्ट्र उनका गृहराज्य है। और न ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज की गुंडागर्दी पर कुछ बोलने की जरूरत समझी। क्या यह हैरत की बात नहीं?
अब शिवसेना भी राज की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के पद चिन्हों पर चलने को आतुर है। उसने भी संसद में धमकी दी कि जल्द ही इससे भी बड़ा आंदोलन शुरू हो सकता है। कल कोई और दल भी तो इसी तरह की धमकी दे सकता है? फिर क्या करेगी सरकार?
अगर समय रहते प्रांतवाद का विद्वैष फैला रहे राज पर अंकुश लगाया गया होता तो क्या कोई भी सियासी दल संसद में इस तरह की धमकी देने की हिम्मत जुटा पाता?
Sunday, October 19, 2008
राज : ये कैसे काज?
इस बार गलती हुई सो हुई ! रेलवे को भविष्य में भर्ती करते समय सिर्फ महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे के समर्थकों के बारे में विचार करना चाहिए!! पूरे देश में चाहे वह सरकारी हो या निजी नौकरी सिर्फ राज के समर्थकों को ही मिलनी चाहिए!!! प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का पद भी उनके लिए ही आरक्षित कर देना चाहिए!!!!
तभी हो सकता है कि उत्तर भारतीय इनके कोपभाजन से बच सकें। अन्यथा ये यूं ही उन पर कहर बरपाते रहेंगे। कितने शर्म की बात है कि हम अपने ही देश में कहीं जा नहीं सकतें, नौकरी नहीं कर सकते। फिर संविधान में लोगों को देश में कहीं भी रहने और नौकरी करने के मिले अधिकार का क्या फायदा।
राज शायद यह भूल रहे हैं कि रेलवे उनकी बपौती नहींहै। रेल देश की संपत्ति है और इस पर सभी का हक है। चाहे वह जिस राज्य का हो। अगर ये लोग इतने ही इंटेलिजेंट हैं तो परीक्षा में बैठकर सामना करने से क्यों डरते हैं? ये ओपन एग्जाम है, जिसमें दम है वही जॉब लेगा। गुंडागर्दी के बल पर क्या नौकरी मिल जाएगी?
और इस पंगु सरकार चाहे वह महाराष्ट्र की हो या केंद्र की या फिर अन्य सियासी दल, इनसे कोई उम्मीद करना बेकार है। ये इस मामले में इसलिए हस्तक्षेप नहीं करेंगे। क्योंकि चुनाव सिर पर हैं, कहीं वोट पर असर न पड़ जाए। वर्ना राज जैसे छुटभैया नेता की क्या बिसात थी कि वह अपनी ओछी राजनीति चमकाता।
क्या महाराष्ट्र की जनता यह नहींजानती कि राज उनके हितैषी होने का दम भर रहे हैं या अपना वोट बैंक मजबूत कर रहे हैं? मुंबई में राज की मनमानी क्यों चल रह है?
तभी हो सकता है कि उत्तर भारतीय इनके कोपभाजन से बच सकें। अन्यथा ये यूं ही उन पर कहर बरपाते रहेंगे। कितने शर्म की बात है कि हम अपने ही देश में कहीं जा नहीं सकतें, नौकरी नहीं कर सकते। फिर संविधान में लोगों को देश में कहीं भी रहने और नौकरी करने के मिले अधिकार का क्या फायदा।
राज शायद यह भूल रहे हैं कि रेलवे उनकी बपौती नहींहै। रेल देश की संपत्ति है और इस पर सभी का हक है। चाहे वह जिस राज्य का हो। अगर ये लोग इतने ही इंटेलिजेंट हैं तो परीक्षा में बैठकर सामना करने से क्यों डरते हैं? ये ओपन एग्जाम है, जिसमें दम है वही जॉब लेगा। गुंडागर्दी के बल पर क्या नौकरी मिल जाएगी?
और इस पंगु सरकार चाहे वह महाराष्ट्र की हो या केंद्र की या फिर अन्य सियासी दल, इनसे कोई उम्मीद करना बेकार है। ये इस मामले में इसलिए हस्तक्षेप नहीं करेंगे। क्योंकि चुनाव सिर पर हैं, कहीं वोट पर असर न पड़ जाए। वर्ना राज जैसे छुटभैया नेता की क्या बिसात थी कि वह अपनी ओछी राजनीति चमकाता।
क्या महाराष्ट्र की जनता यह नहींजानती कि राज उनके हितैषी होने का दम भर रहे हैं या अपना वोट बैंक मजबूत कर रहे हैं? मुंबई में राज की मनमानी क्यों चल रह है?
Wednesday, October 15, 2008
ये ड्रामा क्यों ?
राजनीति का विकास विरोधी जो रूप इन दिनों रायबरेली में देखने को मिल रहा है क्या वह ठीक है? आखिर कांग्रेस और बसपा क्या साबित करना चाहती है। रेल कोच फैक्टरी को लेकर क्यों सियासी ड्रामा चल रहा है?
चूंकि रायबरेली सोनिया गांधी का चुनाव क्षेत्र है, और अपने क्षेत्र के विकास का हर सांसद को अधिकार है। मायावती ने मुख्यमंत्री के रूप में इस फैक्टरी के लिए जमीन आवंटित करके अपने उस दायित्व का निर्वाह किया था, जो एक मुख्यमंत्री का होता है। पूरे प्रदेश के विकास की जिम्मेदारी भी उसी पर होती है।
मगर उन्होंने इसे ठीक उस समय रद कर दिया, जब सोनिया इसके भूमि पूजन के लिए तारीख तय कर चुकी थीं। कहा गया कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि किसानों में अपनी जमीन अधिग्रहण को लेकर रोष था। जमीन इसी साल मई में आवंटित की गई थी।
यह फैक्टरी लगाने की घोषणा भी रेलमंत्री लालू प्रसाद ने अपने इसी साल के रेल बजट में की थी। मायावती का कहना हैं कि जब इस जमीन पर परियोजना स्थापित करने की रिपोर्ट तक तैयार नहीं की गई है और वे सभी प्रारंभिक औपचारिकताएं भी नहीं हुई हैं, जो किसी परियोजना को लगाने के लिए जरूरी होती हैं तो भूमि पूजन क्या केवल लोकसभा चुनाव को देखते हुए किया जा रहा था।
चूंकि वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं और उन्हें यह सवाल पूछने का हक है, मगर अपने प्रदेश के औद्योगिक विकास के लिए भी उनका कर्तव्य है कि वह किसी ऐसी परियोजना के मार्ग में बाधक न बने जिससे अवाम का भला होता हो।
सोनिया को भी यह देखना होगा कि केवल रायबरेली में ही पूरा उत्तर प्रदेश नहीं समाया हुआ है। प्रदेश में और भी कई जिले हैं। ऐसे में यह फैक्टरी और भी कहीं लगाई जा सकती है।
समाजवादी पार्टी की कांग्रेस से नजदीकी ही बसपा की कटुता का कारण है। मगर इस कटुता के कारण क्या प्रदेश के विकास का बाधक बन जाना ठीक है। दोनों सियासी दलों को ये भी जान लेना चाहिए कि अवाम को ज्यादा दिन तक धोखे में नहीं रखा जा सकता है।
चूंकि रायबरेली सोनिया गांधी का चुनाव क्षेत्र है, और अपने क्षेत्र के विकास का हर सांसद को अधिकार है। मायावती ने मुख्यमंत्री के रूप में इस फैक्टरी के लिए जमीन आवंटित करके अपने उस दायित्व का निर्वाह किया था, जो एक मुख्यमंत्री का होता है। पूरे प्रदेश के विकास की जिम्मेदारी भी उसी पर होती है।
मगर उन्होंने इसे ठीक उस समय रद कर दिया, जब सोनिया इसके भूमि पूजन के लिए तारीख तय कर चुकी थीं। कहा गया कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि किसानों में अपनी जमीन अधिग्रहण को लेकर रोष था। जमीन इसी साल मई में आवंटित की गई थी।
यह फैक्टरी लगाने की घोषणा भी रेलमंत्री लालू प्रसाद ने अपने इसी साल के रेल बजट में की थी। मायावती का कहना हैं कि जब इस जमीन पर परियोजना स्थापित करने की रिपोर्ट तक तैयार नहीं की गई है और वे सभी प्रारंभिक औपचारिकताएं भी नहीं हुई हैं, जो किसी परियोजना को लगाने के लिए जरूरी होती हैं तो भूमि पूजन क्या केवल लोकसभा चुनाव को देखते हुए किया जा रहा था।
चूंकि वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं और उन्हें यह सवाल पूछने का हक है, मगर अपने प्रदेश के औद्योगिक विकास के लिए भी उनका कर्तव्य है कि वह किसी ऐसी परियोजना के मार्ग में बाधक न बने जिससे अवाम का भला होता हो।
सोनिया को भी यह देखना होगा कि केवल रायबरेली में ही पूरा उत्तर प्रदेश नहीं समाया हुआ है। प्रदेश में और भी कई जिले हैं। ऐसे में यह फैक्टरी और भी कहीं लगाई जा सकती है।
समाजवादी पार्टी की कांग्रेस से नजदीकी ही बसपा की कटुता का कारण है। मगर इस कटुता के कारण क्या प्रदेश के विकास का बाधक बन जाना ठीक है। दोनों सियासी दलों को ये भी जान लेना चाहिए कि अवाम को ज्यादा दिन तक धोखे में नहीं रखा जा सकता है।
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